वेब सीरीज- खाकी:द बंगाल चैप्टर
निर्देशक: नीरज पांडेय
स्टार कास्ट: जीत, प्रसेनजीत, परंब्रता चटर्जी, चित्रांगदा सिंह, ऋत्विक भौमिक, आदिल जफर खान, आकांक्षा सिंह, शीर्षेंदु दास और सास्वत चटर्जी
कहां देख सकते हैं : नेटफ्लिक्स पर
रेटिंग: 3.5
Khakee: The Bengal Chapter Review: नीरज पांडेय की खाकी सीरीज का नया चैप्टर आ गया है और इस बार ये बंगाल के क्राइम पर है. लेकिन 7 एपिसोड देखने के बाद लगता है कि ये तो वाम और टीएमसी की राजनीति की कहानी को ड्रामेटिक तरीक़े से बता रही है.ऐसे तो राजनीति और अपराधियों के गठजोड़ पर बनी इस सीरीज़ की कहानी कुछ ख़ास नहीं है, लेकिन इसकी बंगाली पृष्ठभूमि और एक से बढ़कर एक बंगाली कलाकारों का रोल इसको दिलचस्प बना देता है, बहुत संभावना है कि आप एक बार में ही सारे एपिसोड देखकर उठेंगे.
क्या है इसकी कहानी
कहानी है नई सदी के कुछ शुरुआती और कुछ पिछले सालों की, जब लोगों के पास मोबाइल फोन आये ही आये थे. बाघा उर्फ शंकर (सास्वत मुखर्जी) की पूरे कोलकाता के अंडरवर्ल्ड में तूती बोलती थी, जिसके ऊपर हाथ था सत्ताधारी पार्टी के नेता वरुण रॉय (प्रसेनजित चटर्जी) का. जिसका इस्तेमाल वो अपने काले धंधे संभालने और राजनीतिक दुश्मनों को ठिकाने लगाने के लिए करता था. अचानक सत्तारूढ़ पार्टी के एक बड़े नेता के नाती का किडनैप हो जाता है और उल्टा खेल शुरू हो जाता है.
विपक्ष के दबाव में सरकार एक ईमानदार आईपीएस अधिकारी सप्तऋषि सिन्हा (परंब्रता) को ये केस सौंपती है, शक बाघा पर जाता है या योजना के तहत डाला जाता है लेकिन बाघा के लोग काम पर जुटते हैं और लड़का घर वापस आ जाता है, सप्तऋषि के बिना किसी हस्तक्षेप के. वरुण रॉय को लगता है कि सप्तऋषि को बिना कुछ करे ही ऐसे ही वापस भेजा गया तो गलत मेसेज जाएगा तो काम दिया गया बाघा गैंग पर नकेल कसने का.
कुछ कन्फ्यूजिंग है
हालांकि इस मुद्दे पर ये सीरीज कुछ कन्फ्यूजिंग है, क्योंकि वरुण अपने सबसे बेहतरीन गुर्गे को खत्म क्यों करना चाहता था, ये समझा नहीं आया.अगर छवि की वजह से तो फिर उसकी जगह बाधा के दायें बायें हाथ को समर्थन देने की जरूरत क्या थी? उन दोनों का भी आईपीएस सप्तऋषि को मारने का कदम भी हैरान करने वाला था.
वरुण उन दोनों यानी सैगोर (ऋत्विक भौमिक) और रंजीत (आदिल जफर) पर हाथ रख देता है, दोनों बाघा को मार देते हैं. लेकिन विपक्ष की नेता निवेदिता (चित्रांगदा सिंह) के विरोध के बाद नया ईमानदार आईपीएस अर्जुन मोइत्रा (जीत) कोलकाता पुलिस के डीसीपी का चार्ज लेकर उनके पीछे पड़ जाता है. वरुण रॉय सैगोर को राजनीति में ले आता है और धंधा रंजीत संभालने लगता है और आईपीएस अर्जुन को सीएम की सुरक्षा में भेज दिया जाता है.
बेहतरीन डॉयलॉग्स का इस्तेमाल
आगे की कहानी ये दिखाती है कि कैसे साइडलाइन किए जाने के बावजूद अपनी पुरानी SIT टीम के सहारे आईपीएस अर्जुन इस पूरे नेक्सस से निपटता है.कहानी को आग बढ़ाने के लिए कुछ बेहतरीन डॉयलॉग्स का भी इस्तेमाल किया गया है जैसे, “पिछले कुछ दिनों में एक अच्छी सीख मिली है मुझे, एक अच्छा नौकर अच्छा मालिक बने ये जरूरी नहीं है” या फिर “अगर देश के हर करप्ट पॉलिटिशियन को जेल भेज दिया जाये तो बाकी कैदियों के लिए कोई जगह नहीं बचेगी”.
कहानी के हीरो अर्जुन बंगाली कलाकार जीत हैं, सीरीज के मुख्य खलनायक हैं प्रसेनजीत, जो बंगाली के जाने माने नाम हैं तो जग्गा जासूस फेम सास्वत मुखर्जी बाघा के रोल में हैं. परंब्रता, चित्रांगदा और ये सब बाद बंगाली चेहरे हिन्दी ऑडियंस के लिये भी अनजान नहीं, सभी को लोग पसंद करते हैं. और इनमें से किसी भी कलाकार ने निराश नहीं किया. जबकि नये चेहरों में पूजा चोपड़ा, ऋत्विक भौमिक और आदिल ज़फ़र में भी कमाल की ऐक्टिंग की है, आकांक्षा सिंह को भी इस मूवी में दमदार रोल मिला है.
डायरेक्टर ने पूरी कोशिश की है कि उस दौर की बंगाल की राजनीति और अपराध के गठजोड़ को बेहतरीन तरीक़े से दिखाए और इसमें वो कामयाब भी रहा है. उसमें भी जब आप ज्योति बसु और ममता बनर्जी के नज़रिए से इसे देखते हैं तो सीरीज़ और भी दिलचस्प हो जाती है. साधारण कहानी होने, ज़्यादा सस्पेंस ना होने की कमियों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाये तो बेहतरीन कलाकारों की शानदार एक्टिंग, बंगाली सेटअप, अच्छे डॉयलॉग्स और सीरीज़ की स्पीड आपको इसे एक बार में ही देखने को मजबूर करती है और नीरज पांडेय की सीरीज़ है तो मसालों की कमी तो शायद ही महसूस होगी. हां, खलनायक को ‘बाघा’ नाम नहीं देना था, बाघा जतिन बंगाल के एक बड़े क्रांतिकारी थे.
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