सोमवार की शाम को जगदीप धनखड़ ने उपराष्ट्रपति पद से अचानक इस्तीफा दिया तो आम लोगों के साथ सरकार और विपक्षी पार्टियां भी भौचक्की रह गईं. सरकार के लिए यह इतना अप्रत्याशित था कि पहली प्रतिक्रिया आने में 12 घंटे से ज्यादा लग गए. विपक्ष को यह समझ ही नहीं आया कि उसे रिएक्ट कैसे करना है. विपक्षी दलों ने सरकार को घेरने का आसान तरीका अपनाया, लेकिन इसमें भी आपस में ही उलझ गए. कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने धनखड़ को सरकार और विपक्ष के लिए एक जैसा कड़क उपराष्ट्रपति बता दिया तो शिवसेना (यूबीटी) की प्रियंका चतुर्वेदी बिफर पड़ीं. प्रियंका ने रमेश को फैक्ट चेक करने की नसीहत देते हुए कहा कि ज्यादा वक्त नहीं गुजरा जब विपक्ष धनखड़ के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने को मजबूर हुआ था.
यह मामला ज्यादा आगे नहीं बढ़ा, लेकिन इसने यह सवाल जरूर खड़ा कर दिया कि जो विपक्ष धनखड़ के इस्तीफे पर प्रतिक्रिया देने में एकजुट नहीं रह सका, वह नए उपराष्ट्रपति के चुनाव में भला कैसे एकजुट रह पाएगा. इसमें शक नहीं कि धनखड़ का इस्तीफा सरकार के लिए झटका है. खासकर इसलिए भी कि आने वाले समय में सरकार संसद में कई महत्वपूर्ण बिल लाने की तैयारी कर रही है, लेकिन यह विपक्ष के लिए उससे बड़ी चुनौती है.
विपक्ष में बिखराव की आशंका
बीजेपी कई महीनों से अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया में व्यस्त है. केंद्रीय कैबिनेट और पार्टी संगठन में बदलाव की अटकलें भी लग रही हैं. करीब तीन महीने बाद बिहार विधानसभा के चुनाव भी होने हैं. यानी बीजेपी और उसके नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ गठबंधन एनडीए के पास कई व्यस्तताएं हैं. अब इसमें उपराष्ट्रपति का चुनाव भी जुड़ गया है. एनडीए के तीसरे कार्यकाल में बीजेपी के पास अपना बहुमत नहीं है. पिछले दो उपराष्ट्रपति चुनावों में एनडीए उम्मीदवारों की जीत का मार्जिन बढ़ा है. इसे बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है. सियासी जरूरतों से तालमेल बिठाते हुए एनडीए के सर्वसम्मत उम्मीदवार की तलाश करना और फिर उसकी जीत की रणनीति तैयार करने में मुश्किलें आना तय है, लेकिन यह उतना भी कठिन नहीं है जितना लगता है. असली मुश्किल तो विपक्ष के सामने है क्योंकि उसमें बिखराव की पूरी संभावना दिख रही है जिसका फायदा सत्ता पक्ष को मिलेगा.
खत्म हो गया इंडिया ब्लॉक!
2022 में जब उपराष्ट्रपति का चुनाव हुआ था, तब विपक्षी पार्टियों ने मार्गरेट अल्वा को अपना सर्वसम्मत उम्मीदवार बनाया था. तब तृणमूल कांग्रेस ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया था. पार्टी ने आरोप लगाया था कि अल्वा को प्रत्याशी घोषित करने से पहले उसकी राय नहीं ली गई. तब इंडिया ब्लॉक का गठन भी नहीं हुआ था. तीन साल बाद हालात ये हैं कि इंडिया ब्लॉक करीब-करीब खत्म हो चुका है. गठबंधन में शामिल रही आम आदमी पार्टी इससे अलग हो चुकी है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी के हालिया बयान के बाद सीपीएम भी पार्टी के खिलाफ हमलावर हो गई है. शिवसेना (यूबीटी) की हालत ये है कि पिछले साल महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में गठबंधन की हार के लिए वह कांग्रेस को दोषी ठहरा चुकी है.
क्या करेंगे लालू और ममता?
ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस के बड़े भाई वाले एटीट्यूड से हमेशा परेशानी रही है. वह इंडिया गठबंधन में कांग्रेस के नेतृत्व पर भी सवाल उठा चुकी हैं. अगले साल बंगाल में विधानसभा चुनाव हैं. ऐसे में इसकी संभावना कम है कि वह विपक्षी एकता के नाम पर किसी ऐसा उम्मीदवार का समर्थन करेंगी जो उनकी सियासी जरूरतों को पूरा नहीं करता हो. कमोबेश यही हाल बिहार में आरजेडी का है. आरजेडी, कांग्रेस की सबसे पुरानी सहयोगी है, लेकिन उसकी मौजूदा प्राथमिकता बिहार चुनाव है. ये तय है कि विपक्षी दलों के लिए सर्वमान्य उम्मीदवार की तलाश करना भी टेढ़ी खीर साबित हो सकता है.
कुछ करे विपक्ष, हार तय
कांग्रेस आगे बढ़कर पहल करे तो चीजें आसान हो सकती हैं, लेकिन समस्या ये है कि विपक्षी एकता की कोई रणनीति इन दलों के पास नहीं है. फिर संसद का नंबर गेम भी विपक्षी दलों के पक्ष में नहीं है. दोनों सदनों को मिलाकर फिलहाल 787 सदस्य हैं. उपराष्ट्रपति चुनाव में जीतने वाले उम्मीदवार को कम से कम 394 वोटों की जरूरत होगी. एनडीए के पास कुल 422 सांसद हैं. यानी उसके प्रत्याशी की जीत तय है. जब सामने हार तय दिख रही हो, तब विपक्षी एकता के नाम पर कांग्रेस दूसरी पार्टियों को कितना तैयार कर पाएगी, यह काफी हद तक आने वाले समय में देश में विपक्षी राजनीति की दिशा तय करेगा.