Geeta Updesh Saar: जीवन में हर व्यक्ति कुछ ना कुछ बड़ा करना चाहता है. हर किसी की चाहत होती है कि उसके पास वो तमाम चीजें हो, जो किसी कामयाब व्यक्ति के पास है. इन सारी बातों को सोचते हुए तो हम आनंदित तो हो जाते हैं, लेकिन अगले ही पल जैसे ही हमारी अंतरात्मा हमें यह कहती है कि सफल होने के लिए बहुत मेहनत करना होगा. इसके बाद ना चाहते हुए भी हम उन विचारों से दूर होने लगते हैं. जिसे सोचकर कुछ देर पहले उत्साहित हो रहे थे. मतलब स्पष्ट है कि कुछ लोग सफलता के बारे में सिर्फ सोचते हैं, तो वहीं कुछ लोग केवल सोचते ही नहीं बल्कि उसके लिए मेहनत भी करते हैं. परिणाम यह होता है कि मेहनती व्यक्ति सफल हो जाता है, लेकिन सपनों में अटका प्राणी जीवन भर ख्वाबों में ही खोया रह जाता है.
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ऐसे में सवाल यह है कि आखिर वो कौन सी बाधाएं हैं, जो मनुष्य को चाहते हुए कामयाबी के लिए कर्म करने से रोकती है. दरअसल, इसका जवाब भगवान कृष्ण ने श्रीमद् भागवत गीता में दिया है. अब गीता उपदेश में इसका जवाब जानने से पहले इस बात को समझिए कि महाभारत में अर्जुन कौरवों से लोहा ले रहे थे और आज हम खुद के ही विचारों से लड़ रहे हैं. युद्ध वो भी था, युद्ध ये भी है. फर्क बस इतना है कि अर्जुन दूसरों से लड़ रहे थे और हम खुद से लड़ रहे हैं.
जीं हां, मौजूदा हालात में हमारी लड़ाई किसी और से नहीं बल्कि खुद से है. आज हम किसी और से नहीं, बल्कि खुद की बुराइयों से लड़ रहे हैं. हमारे ऊपर बुरे विचार, डर, घृणा, आलस, लोभ, मोह और अन्याय हावी हो चुके हैं. बुरे संस्कार और गलत काम जैसी नकारात्मकता इतनी गहरी हो गई है कि हम चाहते हुए भी इससे निकल नहीं पाते हैं. लिहाजा, खुद से चल रहे इस भयानक युद्ध में विजयी होने के लिए हमें गीता उपदेश का सहारा लेना चाहिए.
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गीता उपदेश में समाधान
भगवान कृष्ण द्वारा दिए गए श्रीमद् भागवत गीता उपदेश के दूसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में इसका समाधान मिल सकता है. दरअसल, यह श्लोक उस वक्त का है, जब अर्जुन रणभूमि में शस्त्र को नीचे रख देते हैं और हाथ जोड़कर कपकपाते हुए कहते हैं कि हे भगवन, मैं ये युद्ध नहीं लड़ सकता. अब इसे ऐसे सोचिए कि हम सफतला तो चाहते हैं, लेकिन मेहनत और प्रयास करने से पहले ही हम हार मान जाते हैं. ऐसी स्थिति में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, क्लैब्यम्, मा, स्म, गमः, पार्थ, न, एतत्, त्वयि, उपपद्यते, क्षुद्रम् हृदयदौर्बल्यम्, त्यक्त्वा, उत्तिष्ठ, परन्तप.
अर्थात, हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती. हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़े हो जा. ठीक इसी प्रकार हमें भी जीवन के इस युद्ध में डर, घृणा, आलस, अन्याय, लोभ, मोह, बुरे संस्कार और वासना से लड़ कर इसपर विजय प्राप्त करना होगा. लिहाजा, मनुष्य को जीवन में वही कर्म करना चाहिए, जो उसे कामयाबी तक लेकर जाए.
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