जमुई जिले के चकाई प्रखंड अंतर्गत गजही पंचायत का बरदघटी गांव आज भी मूलभूत सुविधाओं से कोसों दूर है. सबसे बड़ी समस्या पतरों नदी पर पुल नहीं होना है. बरसात में नदी उफान पर आ जाती है और ग्रामीणों की जिंदगी नरक बन जाती है. हर साल कई बार लोग अपनी जान हथेली पर रखकर नदी पार करने को मजबूर होते हैं.
गुरुवार को एक दृश्य ने सरकारी विकास के दावों की पोल खोल दी. गांव के संतोष दास की पत्नी काजल कुमारी को प्रसव पीड़ा हुई. मंगलवार रात तेज बहाव की वजह से परिजन अस्पताल नहीं जा सके. सुबह हालत गंभीर हुई तो गांव के छह लोगों ने महिला को सहारा देकर किसी तरह नदी के उस पार पहुंचाया. नदी की तेज धार में कई बार संतुलन बिगड़ा, लेकिन हिम्मत के सहारे ग्रामीणों ने महिला को सुरक्षित पार कराया.
परिजन पूरी रात डर के साए में गुजारे. एक ओर पत्नी की जान का खतरा, दूसरी ओर नदी की मौत जैसी लहरें. सुबह ग्रामीणों ने मिलकर जोखिम उठाया और यह साबित कर दिया कि जब व्यवस्था सोती है, तो इंसानियत जागती है. इस दौरान महिला की हालत बेहद गंभीर हो गई थी, पर वक्त रहते उसे अस्पताल पहुंचाया गया.
गजही पंचायत के सुंदरी, बरदघटी, सोने, कर्माटांड़, दिघरिया, कौशमाहा, घुठिया और कोरैया गांव के लोग सालों से इसी पतरों नदी से गुजरने को मजबूर हैं. बिना पुल के इन गांवों में हर बारिश, हर आपदा एक नई मुसीबत बनकर आती है. बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, मरीज अस्पताल नहीं पहुंच पाते और प्रसूताओं की जान जोखिम में पड़ जाती है.
स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि उन्होंने कई बार पुल की मांग की, लेकिन हर बार केवल आश्वासन मिला. न तो प्रशासन ने सुध ली, न ही विधायक या मंत्री ने कोई ठोस पहल की. विडंबना यह है कि स्थानीय विधायक सुमित कुमार खुद राज्य सरकार में विज्ञान और प्रावैधिकी मंत्री हैं, फिर भी इस क्षेत्र की हालत बद से बदतर है.
ग्रामीणों का कहना है कि तीन महीने बाद विधानसभा चुनाव है, और इस बार नेता वोट मांगने आएंगे तो लोग उन्हें यह दृश्य जरूर दिखाएंगे. गांववालों का गुस्सा अब उबाल पर है. वे कहते हैं कि अब सिर्फ वादा नहीं, काम चाहिए. अगर पुल नहीं बना तो इस बार जवाब भी कड़ा होगा.
महिलाएं कहती हैं कि जब भी कोई प्रसव पीड़ा होती है, तो उन्हें या तो प्रसव घर पर करना पड़ता है या फिर जान जोखिम में डालकर नदी पार कर अस्पताल जाना पड़ता है. कई बार समय पर अस्पताल न पहुंच पाने से जान भी चली जाती है. लेकिन कोई सुध नहीं लेता.
यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, यह सरकारी लापरवाही की सालों पुरानी कहानी है. आजादी के 73 साल बाद भी लोग नदियां पार करने के लिए कंधों का सहारा ले रहे हैं. यह सिर्फ एक प्रसूता की कहानी नहीं, यह हर उस गांव की कहानी है जहां सिस्टम सिर्फ चुनाव के समय पहुंचता है.
इनपुट- अभिषेक निरला
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