Bhagwat Geeta Updesh Saar: जैसे सुबह के बाद शाम, दिन के बाद रात, सर्दी के बाद गर्मी और बरसात के बाद धूप निकलना प्राकृतिक है. ठीक उसी प्रकार जीवन में सुख और दुख का आना-जाना भी स्वाभिक है. यह जानते हुए भी मनुष्य अपने कठिन समय में धैर्य खोने लगता है. ऐसे में जरूरी है कि इंसान अपना संतुलन बनाए रखे, क्योंकि जीवन में ना सुख स्थायी है और ना ही दुख. लिहाजा, हमें समान भाव से सुख-दुख को स्वीकार करके जीवन जीना चाहिए. खास बात यह है कि इस उपदेश को भगवान श्री कृष्ण ने भागवत गीता के माध्यम से अर्जुन को दिया था.
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मनुष्य की चाहत
हर व्यक्ति चाहता है कि वह हमेशा खुश रहे, गम उससे हमेशा दूर रहे. हालांकि, व्यावहारिक जीवन में संभव नहीं हो पाता है. जिससे मनुष्य की चाहत पूरी नहीं होती और वह परेशान हो जाता है. अगर गौर से समझा जाए तो पता चलता है कि परेशानी के पीछे मूल रूप से हमारी इच्छाएं होती हैं. किसी भी इच्छा की पूर्ति होने पर हमारा मन खुश हो जाता है. जबकि इच्छाओं की पूर्ति नहीं होने पर मन उदास हो जाता है. ऐसी स्थिती में हमें इच्छाओं से परे बिना कर्म फल के बारे में सोचे सिर्फ अपने धर्म के अनुसार कर्म करते रहना चाहिए, क्योंकि बुरे वक्त के बाद अच्छा समय भी जरूर आता है.
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गीता में समाधान
सुख और दुख के बीच संतुलन बनाए रखने को लेकर भगवान श्री कृष्ण ने भगवद गीता के दूसरे अध्याय के 14वें और 15वें श्लोक में अर्जुन को उपदेश दिया है. 14वें श्लोक में भगवान कहते हैं, मात्रस्पर्शाः, तु, कौन्तेय, शीतोष्णसुखदुःखदाः, आगमापायिनः, अनित्याः, तान्, तितिक्षस्व, भारत. अर्थात, हे कुन्तीपुत्र! सर्दी गर्मी और सुख-दुःखको देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग (तु) तो उत्पत्ति विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर.
इसके आगे दूसरे अध्याय के 15वें श्लोक में भगवान कहते हैं कि, यम्, हि, न, व्यथयन्ति, एते, पुरुषम्, पुरुषर्षभ, समदुःखसुखम्, धीरम्, सः, अमृतत्वाय, कल्पते. अर्थात, पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर अर्थात् तत्वदर्शी पुरुष को ये व्याकुल नहीं करते, वह पूर्ण परमात्मा के आनन्द के योग्य होता है.
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