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Bihar Chunav 2025: पीएम मोदी और सीएम नीतीश की ढाई चाल, प्यादों पर दांव लगा रहे राहुल गांधी, बिहार में चल रहा शह-मात का खेल

Bihar Vidhan Sabha Chunav 2025: बिहार में इसी साल के अंत तक विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. चुनावी साल में सभी दल अपनी-अपनी रणनीति के अनुसार जनता को साधने में जुटे हैं. इस बार महागठबंधन में शामिल कांग्रेस पार्टी राजद से ज्यादा आक्रामक दिख रही है. अब देखना ये होगा कि राहुल गांधी किस तरह से पीएम मोदी और सीएम नीतीश कुमार की जोड़ी का सामना करेंगे.

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पीएम मोदी और सीएम नीतीश की ढाई चाल, प्यादों पर दांव लगा रहे राहुल गांधी, बिहार में चल रहा शह-मात का खेल
पीएम मोदी और सीएम नीतीश की ढाई चाल, प्यादों पर दांव लगा रहे राहुल गांधी, बिहार में चल रहा शह-मात का खेल
Zee Bihar-Jharkhand Web Team|Updated: Jun 03, 2025, 01:14 PM IST
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Bihar Vidhan Sabha Chunav 2025: बिहार चुनावी दहलीज पर खड़ा है. ऐसे में तमाम दल सियासी बिसात बिछाने में मशगूल हैं तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चुका हुआ समझना सियासी दलों को भारी पड़ने लगा है. हालांकि, नीतीश कुमार की स्वास्थ्य की अपनी चुनौतियां हैं लेकिन जिस तरह से नीतीश और बीजेपी की जुगलबंदी चल रही है, ऐसे में लगता नहीं है कि फिलहाल कोई वैकेंसी विरोधी दलों के लिए दिख रही है.

क्या मास्टर स्ट्रोक है जातिगत जनगणना?

मोदी सरकार के कैबिनेट कमेटी ऑन पॉलिटिकल अफेयर्स  यानी (CCPA) में एक बड़ा फैसला लिया गया, जिससे न सिर्फ बिहार की सियासत बल्कि आने वाले दिनों में हिंदी पट्टी में खासकर यूपी को भी प्रभावित करेगा. सरकार के पक्षकारों का कहना है कि ये ऐतिहासिक फैसला लिया गया है, जहां सामाजिक ताने-बाने को एक समग्र तौर पर देखा जाएगा. हालांकि इस फैसले का क्रेडिट लेने के लिए कांग्रेस अलग-अलग अभियान चलाने में जुट गई है. सरकार के समर्थक भी दबी जुबान से कांग्रेस के दबाव का परिणाम बता रहे हैं, जबकि मुखर समर्थकों का कहना है कि अगर मनमोहन सरकार ने ये फैसला ले लिया होता तो कमजोर तबकों का सशक्तिकरण अब तक पाइपलाइन में होता.

क्या वाकई कांग्रेस है जातिगत जनगणना का सूत्रधार?

देश में फिरंगी हुकूमत के दरम्यान जनगणना की शुरुआत 1872 में हुई थी और अंग्रेजों ने जितनी बार भी जनगणना कराई, उसमें जाति का जिक्र 1931 तक चला. बहरहाल, आजादी मिली और केंद्र में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए वर्गीकरण किया गया और लंबे अरसे तक कांग्रेस ने जातिगत वर्गीकरण और गणना को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. 70 के दशक के बाद क्षेत्रीय ताकतों का उदय हुआ और उसके बाद का संघर्ष मंडल बनाम कमंडल में देखने को मिला. मंडल की अगुवाई क्षेत्रीय दलों ने करनी शुरू कर दी तो कमंडल पर भारतीय जनता पार्टी का एकाधिकार कायम होता चला गया. यही कारण था कि कांग्रेस देश की राजनीति में हाशिए पर जाती रही.

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क्या वाकई जातिगत जनगणना का क्रेडिट लेने की हकदार है?

मोदी सरकार ने देश को अचंभित करते हुए अचानक जातिगत जनगणना को मंजूरी दे दी. एक दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने प्रधानमंत्री आवास में पीएम नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी और अगले ही दिन कैबिनेट से जातिगत जनगणना को मंजूरी दे दी थी. कुछ लोग मोदी सरकार के इस फैसले को बिहार चुनाव से जोड़कर देख रहे हैं. नीतीश कुमार की सरकार 2023 में ही जातिगत सर्वे करा चुकी है. उसके बाद राहुल गांधी को इसमें कांग्रेस के लिए भविष्य का आधार दिखने लगा तो उन्होंने इस मुद्दे को हड़पने की पूरी कोशिश की. लोकसभा चुनाव में भी इस मुद्दे को उछाला गया था और एक हद तक कांग्रेस या फिर विपक्ष को इसका फायदा भी होता दिखा. 

उसके बाद तेलंगाना में कांग्रेस सरकार ने जातिगत जनगणना कराया और लगातार राहुल गांधी ने सदन में इसके पक्ष में एक तरह से अभियान छेड़ दिया. हाल के चुनाव परिणाम देखें तो कांग्रेस उत्तर से ज्यादा दक्षिण की पार्टी मानी जाने लगी है. उत्तर में एकमात्र हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की अपनी सरकार है. राहुल गांधी भलीभांति समझते हैं कि हिंदी पट्टी में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाए बिना आगे की राह मुश्किल हो सकती है. इसलिए उन्होंने जातीय जनगणना के मुद्दे को एक तरह से हड़प लिया. इस मुद्दे को हड़पने के चक्कर में वे पटना दौरे पर बोल गए कि बिहार की जातिगत जनगणना फर्जी है.

जातिगत जनगणना को मंजूरी के बाद बिहार में बना सवर्ण आयोग

एक तरफ मोदी सरकार ने देश भर में जातिगत जनगणना को मंजूरी दे दी तो वहीं, बिहार की नीतीश कुमार की सरकार ने सवर्ण आयोग को बनाकर एक कदम आगे की चाल चल दी है. नीतीश सरकार के इस कदम को नहले पर दहला माना जा रहा है. एक तरफ जातिगत जनगणना को लेकर विपक्ष खुद को फ्रंटफुट पर खेलने की कोशिश कर रहा है तो नीतीश कुमार ने एक तरह से बाउंसर फेंकने का काम किया है. नीतीश कुमार ने बिहार में पिछड़ा और अतिपछड़ा के अलावा दलितों में महादलित का वर्गीकरण कर अपने पक्ष में एकमुश्त वोटरों को गोलबंद कर चुके हैं. 

अतिपिछड़ा बनाम मूल अतिपिछड़ा
 
बिहार के संदर्भ में देखा जाए तो अतिपिछड़ा वर्ग के तमाम बुद्धिजीवियों से बात करने पर पता चला कि​ नीतीश कुमार के ईबीसी मॉडल में बहुत पेंच है. ये पेंच सामाजिक कम और राजनीतिक ज्यादा है. एक तरफ वो नीतीश कुमार के कर्पूरी मॉडल को वक्त की मजबूरी मानते हैं तो दूसरी तरफ बिहार अतिपिछड़ा वर्ग आयोग को मंजूरी देना खानापूर्ति मानते हैं. उनका कहना है कि जब मजबूत जातियों को अतिपिछड़ा में आरक्षण देना ही था तो अतिपिछड़ा की अवधारणा ही गलत है. जैसे तेली समुदाय आर्थिक तौर पर बहुत ही सक्षम है. ऐसे में ईबीसी की कमजोर जातियां उनके वर्चस्व की शिकार हो रही है.

रोहिणी आयोग की जरूरत क्यों?

2023 में बिहार में जातिगत सर्वे कराया गया. उसके आंकड़े सार्वजनिक होने से पहले मोदी सरकार ने काका कालेलकर आयोग और बीपी मंडल आयोग की तर्ज पर रोहिणी आयोग का गठन किया था. 2 अक्तूबर, 2017 को दिल्ली हाईकोर्ट की रिटायर्ड चीफ जज जस्टिस जी. रोहिणी की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया था. भारत के संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत इस आयोग का गठन हुआ, जिसका काम अन्य पिछड़ा वर्ग का उप-वर्गीकरण करना था. इसे ही रोहिणी आयोग के रूप में जाना गया.

आयोग का कार्यकाल 13 बार बढ़ाया गया. आखिरकार 31 जुलाई, 2023 को आयोग ने अपनी 1100 पन्नों की रिपोर्ट राष्ट्रपति के समक्ष पेश की. रोहिणी आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में OBC की 2633 जातियां हैं. 983 जातियों यानी लगभग 37% को अब तक आरक्षण का लाभ नहीं मिला है. 2018 में आयोग ने पांच साल में केंद्र सरकार की ओर से OBC कोटे में दी गई 1.30 लाख सरकारी नौकरियों और तीन साल में IIT और IIM जैसे संस्थानों के प्रवेश के आंकड़ों का अध्ययन किया.

हालांकि आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है, लेकिन उसमें से जो लब्बोलुआब सामने आ रहे हैं, उनके अनुसार नौकरियों और शिक्षा में 97% ओबीसी आरक्षण का लाभ सिर्फ 25% ओबीसी जातियां ही उठा रही हैं. शेष 75% जातियों की भागीदारी सिर्फ 3% ही है. 983 ओबीसी जातियों की हिस्सेदारी शून्य है. हालांकि, रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट आए काफी समय हो चुका है और अभी तक उसे लागू नहीं किया गया है, जिसे लेकर विपक्षी दल और ईबीसी के पैरोकार मोदी सरकार की मंशा पर सवाल उठा रहे हैं.

मुस्लिम पसमांदा भी मांग रहे अपना हक़

अभी तक मुस्लिमों में नुमाइंदगी और हक के नाम पर 90% हिस्सा अशराफ मुसलमान खा रहे थे, लेकिन पिछड़ों के अंदर कोटा या अतिपिछड़ा मॉडल के तहत पसमांदा जातियों की राजनीतिक महत्वकांक्षा भी हिलोरे मारने लगी. नतीजतन दबंग नेताओं की विरासत भी डोलने लगी. क्षेत्रीय ताकतों में अकसर ये देखा जाता रहा है कि मुसलमानों को प्रतिनिधित्व के नाम पर दबंग या बाहुबली मुसलमान को ही तरजीह दी गई है लेकिन अब अगर पिछड़े मुसलमानों की संख्या और उनकी हालात के बारे में सार्वजनिक विमर्श होना शुरू हुआ तो यह मुस्लिम राजनीतिक करने वाले दलों के लिए एक तरह से नुकसानदायक हो सकता है. 

विधानसभा में कितनी है ईबीसी की आबादी

चुनाव का सीजन आते ही लोग जोड़तोड़ करने में जुट जाते हैं. ऐसे में हर विधानसभा स्तर पर बिहार की जातिगत जनगणना ईबीसी के फेवर में जाता दिख रहा है. राज्य में आधिकारिक तौर पर इनका आंकड़ा 36% माना जाता है तो इसके नेता 40% तक की बात करते हैं. कर्पूरी के मानस पुत्र कहलाने वाले नीतीश खुद के सिर इसका सेहरा बांधते हैं तो दूसरी तरफ पीएम मोदी भी चुनावी सभाओं में अति पिछड़े के बेटे होने की बात करते आए हैं.

बिहार में कांग्रेस का प्रयोग कितना सटीक?

एक दौर में देश की सबसे बड़ी पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस आज सहयोगी दलों की पिछलग्गू बनी हुई है. कांग्रेस का अस्तित्व बिहार में हाशिए पर है और मजबूरी में लालू प्रसाद एंड कंपनी की पार्टनर बनी हुई है. इसलिए कांग्रेस अब अपना जनाधार तलाश रही है. वह सबसे बड़े वोट बैंक अतिपिछड़ा का साधना चाहती है. कांग्रेस ने बिहार में दलित चेहरे पर दांव लगाया है. कांग्रेस की नजर पसमांदा मुसलमान और अतिपिछड़ों पर भी है. खास बात यह है कि राहुल गांधी यह सब राजद की सहयोगी पार्टी बनकर हासिल करने में जुटे हैं.

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चुनावी समर में राहुल गांधी अकेले

बिहार में कांग्रेस ने अखिलेश प्रसाद सिंह को अध्यक्ष पद से हटाकर राजेश राम को कमान सौंपी है. अखिलेश प्रसाद सिंह के बारे में कहा जाता था कि वे वहीं फैसले लेते थे, जो लालू प्रसाद यादव को सटीक लगता था. ऐसे में बहुत कम समय में कांग्रेस ने प्रदेश नेतृत्व में बदलाव कर दलितों को संदेश देने की कोशिश की है. राहुल गांधी ने एक तरफ बिहार के जातिगत जनगणना को फर्जी करार दिया, जिसका क्रेडिट लेते तेजस्वी यादव अघाते नहीं थे. उसके बाद तेजस्वी यादव की माई बहिन योजना को कांग्रेस की ओर से लांच कराते हैं. जाहिर है, एक तरफ राजद अपने सहयोगी दल कांग्रेस पर दबाव बना रही है तो कांग्रेस भी न्यूटन के गति के तीसरे नियम (प्रत्येक क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया होती है.) को फॉलो करती दिख रही है. 

हालांकि, बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरु के आने के बाद कांग्रेस अलग तेवर दिखाने की कोशिश कर रही है. 6 जून को राहुल गांधी संविधान सुरक्षा सम्मेलन करने जा रहे हैं. इस दिन राहुल गांधी मुख्यमंत्री नीतीश  कुमार के गढ़ से अतिपिछड़ों को लुभाने की भरपूर कोशिश करते दिखेंगे. देखना दिलचस्प होगा कि बिहार के इस चक्रव्यूह में राहुल क्या एनडीए से इंडिया को आगे ले जा पाएंगे.

कुमार साहिल

(लेखक PINEWZ के संपादक हैं.)

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