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संघर्षों से उभरे अजेय योद्धा और झारखंड आंदोलन के सबसे बड़े नायक थे शिबू सोरेन

Ranchi: झारखंड आंदोलन और आदिवासी समाज के उत्थान की जब भी चर्चा होती है, शिबू सोरेन का नाम एक केंद्रीय व्यक्तित्व के रूप में सामने आता है. एक ऐसे नेता के रूप में जिन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन के गहरे दुख को जनसंघर्ष में बदल दिया और न केवल राजनीतिक नेतृत्व प्रदान किया, बल्कि एक सामाजिक चेतना का सूत्रपात भी किया.

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शिबू सोरेन, झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक
शिबू सोरेन, झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक
Updated: Aug 04, 2025, 03:23 PM IST
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Ranchi: झारखंड आंदोलन और आदिवासी समाज के उत्थान की जब भी चर्चा होती है, शिबू सोरेन का नाम एक केंद्रीय व्यक्तित्व के रूप में सामने आता है. एक ऐसे नेता के रूप में जिन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन के गहरे दुख को जनसंघर्ष में बदल दिया और न केवल राजनीतिक नेतृत्व प्रदान किया, बल्कि एक सामाजिक चेतना का सूत्रपात भी किया. वह सिर्फ एक राजनेता नहीं, बल्कि झारखंड की आत्मा के प्रवक्ता बनकर उभरे. शिबू सोरेन का जन्म 11 अप्रैल 1944 को तत्कालीन बिहार राज्य के हजारीबाग जिले (अब रामगढ़ जिला) के गोला प्रखंड अंतर्गत नेमरा गांव में हुआ. जब वह मात्र 12 वर्ष के थे, तब उनके पिता सोबरन मांझी की हत्या गांव के सूदखोर महाजनों ने कर दी. यह घटना उनके जीवन की दिशा तय करने वाली बनी. बालक शिबू ने तभी संकल्प लिया कि वह न केवल अपने पिता की हत्या का बदला लेंगे, बल्कि आदिवासियों को महाजनी उत्पीड़न से मुक्त कराएंगे. यही संकल्प बाद में एक जनआंदोलन में परिवर्तित हुआ. किशोर शिबू सोरेन ने अपने पिता के हत्यारों को सजा दिलाने के लिए वर्षों लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी. इस संघर्ष में उनके परिवार को अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन इस कठिन राह ने उन्हें विद्रोही बना दिया. उन्होंने आदिवासियों को एकजुट करना शुरू किया और महाजनों के खिलाफ जन आंदोलन खड़ा किया.

धनबाद, हजारीबाग और गिरिडीह क्षेत्रों में यह आंदोलन कई बार हिंसक रूप भी ले बैठा. शिबू और उनके अनुयायी तीर-धनुष लेकर चलते थे. उन्होंने 'धान काटो आंदोलन' की अगुवाई की, जिसमें आदिवासी महिलाएं खेतों में उतरकर धान काटतीं और पुरुष तीर-धनुष लेकर पहरा देते. इस आंदोलन के कारण शिबू सोरेन के खिलाफ कई थानों में मामले दर्ज हुए.पुलिस और प्रशासन के लिए वह एक चुनौती बन गए. उन्हें कई बार अंडरग्राउंड रहना पड़ाकभी पारसनाथ की पहाड़ियों में तो कभी टुंडी के जंगलों में. लेकिन इन सबके बावजूद, उनका जनाधार और जनसमर्थन लगातार बढ़ता गया.

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इस संघर्ष को संगठित रूप देने के लिए उन्होंने 'सोनोत संताल' नामक संगठन की स्थापना की. इसी दौरान उन्हें संताली समाज द्वारा 'दिशोम गुरु' की उपाधि दी गई, जिसका अर्थ होता है 'देश का नेता'. इस उपाधि ने उन्हें सांस्कृतिक और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर एक सम्मानजनक स्थान दिया. 4 फरवरी 1972 को धनबाद में 'झारखंड मुक्ति मोर्चा' (जेएमएम) की नींव रखी गई. इस समय शिबू सोरेन मात्र 28 वर्ष के थे. इस संगठन का निर्माण उनके 'सोनोत संताल' और विनोद बिहारी महतो के 'शिवाजी समाज' का विलय कर हुआ. ट्रेड यूनियन नेता कॉमरेड एके राय की इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका रही. संगठन में विनोद बिहारी महतो पहले अध्यक्ष और शिबू सोरेन महासचिव बने.

जेएमएम ने शीघ्र ही दक्षिण बिहार (अब झारखंड), ओडिशा और बंगाल के आदिवासी इलाकों में अपनी मजबूत पकड़ बना ली. अलग राज्य के आंदोलन के साथ-साथ जनमुद्दों पर लड़ते हुए संगठन ने जनाधार तैयार किया. 1980 में शिबू सोरेन पहली बार दुमका से सांसद चुने गए.उसी वर्ष बिहार विधानसभा चुनावों में जेएमएम ने संताल परगना की 18 में से 9 सीटें जीतकर अपनी राजनीतिक ताकत का प्रदर्शन किया. 1991 में विनोद बिहारी महतो के निधन के बाद शिबू सोरेन जेएमएम के केंद्रीय अध्यक्ष बने और तब से पार्टी के पर्याय बन गए. उनके नेतृत्व में अलग झारखंड राज्य आंदोलन ने निर्णायक मोड़ लिया और अंततः वर्ष 2000 में झारखंड को अलग राज्य का दर्जा मिला. शिबू सोरेन वर्ष 2005, 2008 और 2009 में तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने. हालांकि उनके कार्यकाल राजनीतिक अस्थिरताओं और गठबंधन की चुनौतियों से घिरे रहे, फिर भी उनका व्यक्तित्व जनता के बीच एक मजबूत, संघर्षशील और जमीनी नेता की छवि में स्थापित रहा.

इनपुट: आईएएनएस

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