Rakshabandhan Special Story: नारायणपुर के नक्सल संगठन के खूनी रास्तों पर चलने वाले ये लोग शायद कभी सोच भी नहीं पाए थे कि उनके जीवन में ऐसा दिन आएगा, जब वे खुलेआम समाज में बैठकर रक्षाबंधन जैसे पवित्र पर्व को मना पाएंगे. नक्सलवाद के अंधेरे से निकलकर समाज की मुख्यधारा में लौटे आत्मसमर्पित नक्सलियों ने इस बार रक्षाबंधन के अवसर पर अपने जीवन का वह सपना पूरा किया, जो सालों से अधूरा था. अपनी बहनों से राखी बंधवाने का...
नक्सल संगठन में रहते हुए इन लोगों के लिए रक्षाबंधन सिर्फ कैलेंडर की एक तारीख थी, जिसका उनके जीवन में कोई मायने नहीं था. जंगलों में हथियार के साए और खून-बारूद के बीच भाई-बहन के इस पवित्र रिश्ते की गर्माहट को महसूस करने का मौका कभी नहीं मिला. लेकिन इस बार नारायणपुर जिला मुख्यालय में आयोजित रक्षाबंधन कार्यक्रम में जब आत्मसमर्पित नक्सलियों की कलाई पर राखी बंधी, तो वर्षों से सूनी पड़ी कलाई मानो भाई-बहन के प्रेम से भर उठी.
25 साल बाद बहनों से राखी बंधवाने का सुख
सरेंडर करने वाले कमलेश (उम्र 39) की आंखें तब भर आईं, जब एक छोटी बच्ची ने उनकी कलाई पर राखी बांधी. 14 साल की उम्र में नक्सल संगठन में शामिल हुए कमलेश ने 25 साल जंगलों में बिताए. उन्होंने कहा- "जब से होश संभाला, रक्षाबंधन जैसे त्योहार सिर्फ दूसरों के लिए होते थे. बहनें गांव में होंगी, उनके अपने भाई होंगे, लेकिन मेरे लिए तो बंदूक और पहरा ही सब कुछ था. आज लगता है जैसे जिंदगी लौट आई है."
इसी तरह सुखलाल, जिसने 19 साल नक्सल संगठन में गुजारे, ने भी कहा — "हम बहनों से दूर, त्योहारों से दूर रहे. हमें यह अहसास ही नहीं था कि राखी बंधवाने पर दिल में कैसी खुशी होती है. आज जब इन मासूम बच्चियों ने हमें राखी बांधी, तो मन भर आया."
सुरक्षा बलों और प्रशासन का मानवीय पहलू
रक्षाबंधन कार्यक्रम का आयोजन जिला प्रशासन और सुरक्षा बलों के सहयोग से किया गया था. उद्देश्य केवल पर्व मनाना नहीं, बल्कि आत्मसमर्पित नक्सलियों को यह महसूस कराना था कि वे समाज के अभिन्न अंग हैं. कार्यक्रम में स्थानीय स्कूली छात्राओं और महिलाओं ने राखी बांधी और तिलक कर मिठाई खिलाई.
राखी के धागों में बंधा विश्वास
आत्मसमर्पित नक्सलियों के लिए यह केवल एक औपचारिक कार्यक्रम नहीं था, बल्कि उनकी जिंदगी में बदलाव का ठोस सबूत था. राखी के धागों ने उनके अतीत और वर्तमान के बीच एक पुल बना दिया. एक तरफ खून-खराबा, अविश्वास और भय का अंधेरा अतीत, तो दूसरी ओर प्रेम, भाईचारे और सुरक्षा का उजला भविष्य.
बहनों ने भी इस मौके पर कहा कि वे इन ‘नए भाइयों’ के लिए दुआ करेंगी कि वे कभी भी उस पुराने रास्ते की ओर न लौटें. कुछ बच्चियों ने मासूमियत से कहा कि उन्हें अच्छा लगा कि अब उनके ‘भाई’ उनकी रक्षा करने के लिए समाज में मौजूद है.
जंगल से समाज तक की कठिन यात्रा
कमलेश और सुखलाल जैसे कई आत्मसमर्पित नक्सली बताते हैं कि संगठन छोड़ना आसान नहीं था. वर्षों तक जंगलों में एक ही सोच के साथ जीते हुए अचानक समाज में लौटना, लोगों के बीच रहना और त्योहार मनाना एक अलग ही अनुभव है. "जंगल में सिर्फ आदेश, डर और हिंसा थी. यहां लोग गले लगाते हैं, मिठाई खिलाते हैं, राखी बांधते हैं… यह फर्क ही जिंदगी बदल देता है,"
रक्षाबंधन ने जगाई नई उम्मीद
यह कार्यक्रम आत्मसमर्पित नक्सलियों के पुनर्वास की दिशा में एक अहम कदम माना जा रहा है. जिला प्रशासन ने भी भरोसा दिलाया कि वे ऐसे लोगों को रोजगार, शिक्षा और रहने की व्यवस्था में हर संभव सहयोग देंगे.रक्षाबंधन जैसे अवसर उन्हें यह एहसास कराते हैं कि वे अब सिर्फ ‘पूर्व नक्सली’ नहीं, बल्कि समाज के जिम्मेदार सदस्य हैं.
बच्चों के साथ हंसी-खुशी के पल
कार्यक्रम के दौरान आत्मसमर्पित नक्सली बच्चों के साथ खेलते, बातें करते और मिठाई बांटते नजर आए. कई ने तो पहली बार सार्वजनिक रूप से बच्चों को गोद में उठाया, उनकी बातें सुनीं और फोटो खिंचवाई. एक समय जिन हाथों में हथियार थे, अब वे हाथ राखी की डोर थामे थे.
रिपोर्ट- हेमंत संचेती
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