DNA Analysis: आज पोइला बोइशाख है. यानी बंगाली कैलेंडर का पहला दिन. बंगालियों का नववर्ष है. आपके मोबाइल पर भी आपने बंगाली मित्रों ने कुछ ऐसा मैसेज किया होगा'SHUBHO NOBBORSH'. पूरे बंगाल में आज इस त्योहार को उत्साह के साथ मनाया जा रहा है. पश्चिम बंगाल सरकार ने इस दिन को बांग्ला दिवस घोषित किया है. कोलकाता के रविंद्र सदन में बांग्ला दिवस का आयोजन हुआ... पश्चिम बंगाल सरकार की तरफ से आधिकारिक कार्यक्रम हुआ..
बंगाल में एक तरफ उत्सव है और दूसरी ओर मुर्शिदाबाद में उजड़े हुए घर भी हैं. एक तरफ मिठाइयां बंट रही हैं तो दूसरी ओर लोग मलबे के बीच लोग अपना आशियाना खोज रहे हैं. मुर्शिदाबाद और आसपास रहने वाले करीब ढाई लाख हिंदू कैसे त्योहार मनाएं. 72 घंटों से जिन्हें ये तक नहीं पता कि उनके घर में क्या जला और क्या बचा है. वो आखिर कैसे नववर्ष पर मिठाइयां बांटें. साल के पहले दिन मुर्शिदाबाद के ये लोग न जाने कितने साल पीछे चले गए हैं.
मुर्शिदाबाद के शमशेरगंज में रहने वाली रीता घोष का तो मानो सब कुछ खत्म हो गया है. पति के किडनी में स्टोन है. डॉक्टर ने इलाज के लिए 10 दिन का वक्त दिया था. इन्होंने किसी तरह से ऑपरेशन के लिए 2 लाख रुपये का इंतजाम किया था..लेकिन कट्टरपंथियों ने सब कुछ लूट लिया.अब रीता को समझ नहीं आ रहा है कि पति का इलाज कैसे होगा.
सब जलकर हुए खाक
एक दंगा क्या से क्या कर जाता है. इसका अंदाजा भी लगाना मुश्किल है. एक बूढ़ी दादी ने जीवनभर की कमाई इस बक्से में रखी थी. अंदर रखे नोट जल गए. गहने जल गए, आधार कार्ड, वोटर कार्ड सब जलकर खाक हो गए. वहीं, शमशेरगंज के शुभांकर का घर भी जला. शुभांकर एक टीचर हैं. इनका घर इनके स्टूडेंट्स ने ही जला दिया. सोचिए, जिन्हें इन्होंने मैथ्स का ट्यूशन पढ़ाया. उन्होंने इनका घर जलाया.
कट्टरपंथियों का दिया दर्द
अगर कट्टरपंथियों ने इनके घरों को नहीं उजाड़ा होता तो आज ये लोग भी बांग्ला दिवस मना रहे होते. इन गलियों में राख की जगह रंगोली होती. इनके रसोईघर में बिखरे बर्तन नहीं होते. बल्कि पकवान की खुशबू आ रही होती. इनकी आंखों में आंसू की जगह होठों पर मुस्कान होती. लेकिन कट्टरपंथियों ने इन्हें ऐसा दर्द दिया कि ये शायद जीवन में अब कभी भी नववर्ष नहीं मना पाएंगे..
बंगाल में त्योहार के बीच मुर्शिदाबाद से आ रही तस्वीरें मानो टीस पहुंचा रही हैं. कई सवाल खड़े कर रही हैं. लेकिन इसी के साथ साथ सवाल बांग्ला दिवस की तारीख को भी लेकर उठ रहे हैं. ममता बनर्जी ने आज बांग्ला दिवस की बधाई देते हुए लिखा. मेरे सभी भाइयों और बहनों को शुभकामनाएं. इसके जवाब में बीजेपी नेता ने लिखा, पोइला बोइशाख बंगाली नववर्ष है. ये दिन बंगाल का स्थापना दिवस नहीं है. असली स्थापना दिवस 20 जून को है.
दरअसल, टीएमसी आज यानी 15 अप्रैल को बांग्ला दिवस के तौर पर मनाती है. साल 2023 में विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर के आज के दिन को बांग्ला दिवस घोषित भी कर दिया गया लेकिन बीजेपी 20 तारीख को स्थापना दिवस मनाती है. क्योंकि 20 जून 1947 को ब्रिटिश भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन की अध्यक्षता में एक महत्वपूर्ण बैठक में पश्चिम बंगाल और पूर्वी बंगाल के विभाजन का निर्णय लिया गया था.
बंगाली नववर्ष और बंगाली कैलेंडर के बारे में...
जिस बंगाली कैलेंडर का जिक्र हो रहा है आज मैं वो अपने साथ लाया हूं. क्योंकि अब मैं आपको बंगाली नववर्ष और बंगाली कैलेंडर के बारे में ऐसी जानकारी बताने वाला हूं जो आपने पहले कभी नहीं सुनी होगी. क्या आपने पहले कभी इस बात पर गौर किया कि जब हिंदुओं का एक कैलेंडर पहले से ही है तो फिर बंगाली कैलेंडर की जरूरत क्यों पड़ी. इस कैंलेंडर को बनवाया किसने. कैलेंडर की शुरुआत कब हुई. और इसे बनाने के पीछे की वजह क्या थी.
बंगाली कैलेंडर को साल 1584 में पहली बार मुगल बादशाह अकबर ने बनवाया. मुगल सल्तनत में इस्लामिक हिजरी कैलेंडर को माना जाता था, लेकिन इस कैलेंडर के हिसाब से फसलों की कटाई के सीजन में टैक्स वसूलने में दिक्कत आती थी. लिहाजा अकबर के आदेश पर एक नया कैलेंडर बनाया गया.. जिसका नाम रखा गया- तारीख ए इलाही. उस दौरान पूरे मुगल सल्तनत में इसी कैलेंडर का इस्तेमाल होने लगा. मुगल सल्तनत खत्म होने पर ये कैलेंडर भी खत्म हो गया. लेकिन बंगाल में इसे आज भी माना जाता है.
अकबर के वंशज कहां से आए थे और हिंसा का पैसा भी टर्की से आया है. विदेशी आक्रांता अकबर ने जो कैलेंडर बनवाया आज बंगाल में वही फॉलो किया जा रहा है. वैसे बंगाल में जो हिंसा हुई उसकी स्क्रिप्ट भी विदेश में ही लिखी गई.और उसे बंगाल में फॉलो किया गया. प्लानिंग बांग्लादेश से हुई और पैसा टर्की से आया.
वक्फ कानून में संशोधन के विरोध की आड़ में जो हिंसा, खूनखराबा, आगजनी और पथराव हुए वो अचानक नहीं हुए. बल्कि पिछले तीन महीनों से इसका पूरा ब्लूप्रिंट तैयार था. खुफिया एजेंसियों के अनुसार, साजिशकर्ताओं को सिर्फ एक मुद्दे की तलाश थी. और हिंसा का बहाना बना वक्फ संशोधन कानून
- इस हिंसा की योजना गृह मंत्रालय द्वारा प्रतिबंधित दो संगठनों से जुड़े लोगों ने बनाई थी. बांग्लादेश से कुछ कट्टरपंथी अवैध रूप से भारत में दाखिल हुए
- स्थानीय नेटवर्क के साथ मिलकर कट्टरपंथियों ने मुर्शिदाबाद में हिंसा की पूरी प्लानिंग की
- इन बांग्लादेशी घुसपैठियों को मदरसों में एक महीने तक शरण मिली थी।
- हिंसा वाले दिन जंगीपुर सब-डिविजन में सीमा पार से 30 से ज्यादा कॉल आए थे, जिनके ज़रिए हिंसा के लिए गाइडेंस दी गई.. बांग्लादेश में बैठकर दंगाइयों को रिमोट कंट्रोल के जरिए आपरेट किया जा रहा था
- एजेंसी ने 70 से ज्यादा मोबाइल कॉल्स को ट्रैक किया है जो प्रदर्शन को हिंसक बनाने के निर्देश दे रहे थे.
- इससे पहले फरवरी में लालगोला सीमा क्षेत्र के एक गांव में अंसार अल बांग्ला आतंकी संगठन के दो सदस्य आए थे
- आतंकियों ने एक गुप्त बैठक में कहा था कि जल्द ही जिले में 'बड़ी दावत' होगी.. बड़ी दावत यानी दंगा.
- खुफिया रिपोर्टों के अनुसार, टर्की से हिंसा की फंडिंग की गई.. जिसे दो NGO ने रिसीव किया.
- इस पैसे का क्या हुआ.आप अब ये सोच रहे होंगे.. तो खूफिया रिपोर्ट्स से ये भी जानकारी मिली है कि हिंसा के समय पत्थर फेंकने वालों को 500 से 1000 रुपये तक दिए गए
- जंगीपुर में दो महीने पहले ही पत्थर जमा करने का काम शुरू हो गया था. यह पूरा घटनाक्रम दर्शाता है कि मुर्शिदाबाद में हुआ उपद्रव किसी एक दिन का उबाल नहीं, बल्कि लंबे समय से चली आ रही एक अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा था। यहां सवाल ये भी उठता है कि अगर बीते तीन महीने से ऐसी साजिश रची जा रही थी. तो हमारी सुरक्षा एजेंसियां क्या कर रही थीं. जब मदरसों में ये मीटिंग्स चल रही थी. पत्थर जमा किए जा रहे थे.. तब लोकल पुलिस क्या कर रही थी.. क्या मुर्शिदाबाद का दंगा बहुत बड़ा इंटेलिजेंस फेलियर नहीं है.
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