Jhunjhunu News: शेखावाटी क्षेत्र का विश्वविख्यात पारंपरिक लोकनृत्य 'गींदड़' आज लुप्त होने के कगार पर खड़ा है. कभी होली पर्व का मुख्य आकर्षण रहने वाला यह नृत्य अब धीरे-धीरे समाज से ओझल होता जा रहा है. आधुनिकता, बदलते सामाजिक परिवेश और नए सांस्कृतिक आयोजनों के बढ़ते प्रभाव के चलते यह लोकनृत्य पीछे छूटता जा रहा है.
झुंझुनूं ,सीकर, चूरू और जिलों में होली के अवसर पर गींदड़ नृत्य किया जाता था. यह नृत्य गुजरात के गरबा से मिलता-जुलता है, जिसमें लोग पारंपरिक वेशभूषा में नंगाड़े की धुन पर गोल घेरे में डंडे बजाते हुए नृत्य करते हैं. यह नृत्य धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ता है और डंडों के आपसी टकराव से उत्पन्न तेज ध्वनि के साथ ऊर्जा का संचार करता है. इस दौरान दर्शक रोमांच से भर उठते हैं और वातावरण में उत्साह की लहर दौड़ जाती है.
बीते कुछ सालों में आधुनिकता और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव ने पारंपरिक लोकनृत्यों को प्रभावित किया है, जहां पहले गांव-गांव में गींदड़ नृत्य की धूम रहती थी. वहीं, अब इसकी जगह चकाचौंध भरे सांस्कृतिक कार्यक्रम 'फागोत्सव' ने ले ली है. यह बदलाव नई पीढ़ी के लोकसंस्कृति से दूर होने का संकेत देता है.
शेखावाटी में होली पर्व की शुरुआत बसंत पंचमी से ही हो जाती थी, जब गांवों में ढप और चंग की थाप गूंजने लगती थी. यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है, लेकिन अब इसका स्थान आधुनिक संगीत और डीजे ने ले लिया है. पहले जहां पारंपरिक वाद्ययंत्रों पर लोकगीतों की स्वर लहरियां बिखरती थीं. वहीं अब इलेक्ट्रॉनिक संगीत और फिल्मी गानों का बोलबाला हो गया है.
संस्कृति प्रेमियों का मानना है कि यदि गींदड़ नृत्य को बचाना है, तो इसे नई पीढ़ी के बीच लोकप्रिय बनाना होगा. इसके लिए स्कूल-कॉलेजों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में इसे विशेष रूप से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. सरकार और स्थानीय प्रशासन को भी इस दिशा में पहल करनी होगी, ताकि यह लोकनृत्य अपनी पहचान बनाए रख सकें.
शेखावाटी का प्रसिद्ध गींदड़ नृत्य धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है, जिसे बचाने के लिए ठोस प्रयासों की जरूरत है. यदि इसे समय रहते संरक्षित नहीं किया गया, तो यह केवल किताबों और इतिहास का हिस्सा बनकर रह जाएगा.