कैश कांड मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक अहम फैसला सुनाया है. कोर्ट ने जस्टिस यशवंत वर्मा की याचिका खारिज कर दी है. जस्टिस वर्मा ने जांच समिति की रिपोर्ट और तत्कालीन सीजेआई द्वारा उन्हें पद से हटाने की सिफारिश को चुनौती दी थी.कोर्ट ने कहा कि अगर आरोपों में फैक्ट्स पाए जाते हैं तो जज इम्यूनिटी का दावा नहीं कर सकते. सुप्रीम कोर्ट ने नकदी बरामदगी मामले में कदाचार का दोषी पाए जाने पर आंतरिक जांच रिपोर्ट को अमान्य करने की मांग करने वाली इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि आरोपों में फैक्ट्स पाए जाते हैं तो जज के फंडामेंटल राइट्स के हनन या उनके निष्कासन की योजना के उल्लंघन का हवाला देते हुए छूट का दावा नहीं कर सकते.
भारत में न्यायाधीशों को उनके ऑफिशियल ज्यूडिशियल ड्यूटीज के निर्वहन में किए गए कामों के लिए सिविल और आपराधिक दायित्व में छूट है. पद पर रहते हुए किए गए कामों के लिए पूर्व अनुमति के बिना उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है, तथा महाभियोग के अलावा उनके आचरण पर संसदीय या विधायी चर्चा से भी उन्हें संरक्षण प्राप्त है.
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ए जी मसीह की बेंच ने कहा कि भारत के चीफ जस्टिस के पास सुप्रीम ज्यूडिशियल ऑफिसर के रूप में यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे यह सुनिश्चित करें कि देश की ज्यूडिशियरी ट्रान्सपेरेंट, स्किल्ड और संवैधानिक रूप से उचित तरीके से काम करे. कोर्ट ने कहा, 'हमें यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि मुख्य न्यायाधीश समिति और राष्ट्रपति/प्रधानमंत्री के बीच सिर्फ़ एक डाकघर नहीं हैं, कि रिपोर्ट बिना किसी टिप्पणी/सिफारिश के आगे भेज दी जाए. बेंच ने आगे कहा, 'किसी न्यायाधीश ने कदाचार किया है या नहीं, यह पता लगाने के लिए संस्थागत हित और विश्वसनीयता बनाए रखने की व्यापक योजना में मुख्य न्यायाधीश स्पष्ट रूप से एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, अगर सबसे महत्वपूर्ण नहीं भी, तो.'
वहीं, जस्टिस वर्मा ने भारत के तत्कालीन चीफ जस्टिस संजीव खन्ना की 8 मई की सिफारिश को भी कैंसिल करने की मांग की थी, जिसमें उन्होंने संसद से उनके खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने का आग्रह किया था. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि आंतरिक जांच किसी जज को हटाने का तंत्र नहीं है और केवल कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती.
इसने टिप्पणी की, 'इस मामले में जांच की प्रकृति प्रारंभिक, तदर्थ है और अंतिम नहीं है. साथ ही यह प्राकृतिक न्याय के किसी भी सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करती है. आंतरिक जांच या इसकी रिपोर्ट, जो प्रक्रिया का हिस्सा है. अपने आप में किसी जस्टिस को हटाने का कारण नहीं बनती है. जैसा कि संवैधानिक रूप से निर्धारित प्रक्रिया में होता है. हम दोहराते हैं कि समय पर की गई एक टांका नौ टांकों का बचाव करती है.'
कोर्ट ने यह भी कहा कि जांच अधिनियम, दुर्व्यवहार के आरोपी जस्टिस को ऐसे सबूत पेश करके बचाव करने से नहीं रोकता है जो आरोप का समर्थन करने वाले गवाहों के सबूत दर्ज होने के बाद स्वीकार्य और प्रासंगिक हों. इसमें कहा गया है, 'अगर जांच अधिनियम के तहत समिति द्वारा प्रक्रिया के तहत तैयार की गई समिति की रिपोर्ट पर कोई भरोसा किया जाता है, तो आरोपित न्यायाधीश को सूचित किए जाने का अधिकार है, जिसके बाद वह कानून में उपलब्ध गैर-विश्वसनीयता/अस्वीकार्यता के संबंध में ऐसे बिंदु उठा सकता है.'
अपनी याचिका में जस्टिस वर्मा ने दलील दी कि जांच ने 'सबूत के बोझ को उलट दिया', जिससे उन्हें अपने खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच करने और उन्हें गलत साबित करने की जरूरत हुई. उन्होंने आरोप लगाया कि पैनल के नताइज एक कहानी पर थे, और कहा कि जांच की समय-सीमा सिर्फ कार्यवाही को जल्दी खत्म करने की इच्छा से प्रेरित थी, यहां तक कि 'Procedural Fairness' की कीमत पर भी. याचिका में तर्क दिया गया कि जांच पैनल ने उन्हें पूर्ण और निष्पक्ष सुनवाई का अवसर दिए बिना ही Unfavorable Conclusion निकाले.
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