Ballia News: जब पूरा देश 15 अगस्त 1947 को आजादी का जश्न मना रहा था, तब बहुत कम लोगों को यह पता था कि उत्तर प्रदेश का बलिया जिला तो पांच साल पहले ही अंग्रेजी हुकूमत की बेड़ियां तोड़ चुका था. यह आजादी भले ही सिर्फ चार दिनों की रही हो, लेकिन इतिहास में यह घटना स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है. 20 अगस्त 1942 को अंग्रेजी कलेक्टर ने आधिकारिक तौर पर बलिया का प्रशासन स्वतंत्रता सेनानी चित्तू पांडे को सौंप दिया था.
भारत छोड़ो आंदोलन की आग बलिया तक
8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान से ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का बिगुल फूंका और नारा दिया – “करो या मरो”. अंग्रेज सरकार ने जवाब में कांग्रेस के बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया, जिससे आंदोलन बगैर केंद्रीय नेतृत्व के आगे बढ़ा. लेकिन जनता के भीतर गुस्सा ज्वालामुखी की तरह फट पड़ा. मुंबई से उठी चिंगारी इलाहाबाद होते हुए बलिया पहुंची, जहां लोगों ने थाने जलाए, सरकारी दफ्तरों पर धावा बोला और रेल की पटरियां उखाड़ दीं.
बेल्थरारोड में मालगाड़ी लूट और रेल संपर्क ठप
14 अगस्त 1942 तक बलिया आंदोलन के चरम पर था. बेल्थरारोड इलाके में आंदोलनकारियों ने एक मालगाड़ी को रोककर लूट लिया और रेल पटरियां उखाड़ दीं, जिससे बलिया का रेल संपर्क पूरी तरह कट गया. अंग्रेजी प्रशासन के लिए हालात संभालना मुश्किल हो गया.
गोलियों और गिरफ्तारी से भी नहीं थमा आक्रोश
अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाईं, जिसमें कई देशभक्त शहीद हुए. बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन भीड़ थमने का नाम नहीं ले रही थी। लाठी, भाले, गड़ासा, बर्छी, तलवार, ईंट-पत्थर – जो भी हथियार हाथ लगा, लोग लेकर जिला जेल की ओर बढ़ गए। जिले के कोने-कोने से हजारों आंदोलनकारी जेल के बाहर डेरा डालकर अपने नेताओं की रिहाई की मांग करने लगे.
अंग्रेजी कलेक्टर ने थामी सफेद झंडी
भीड़ के बढ़ते दबाव और प्रशासन की बेबसी के बीच, अंग्रेजी कलेक्टर और पुलिस कप्तान को मजबूरन जेल के अंदर जाकर चित्तू पांडे और अन्य क्रांतिकारी नेताओं से बातचीत करनी पड़ी. न सिर्फ उन्हें रिहा किया गया, बल्कि टाउन हाल क्रांति मैदान में भाषण देने की अनुमति भी दी गई. पुलिस थानों में सन्नाटा छा गया और प्रशासनिक तंत्र पंगु हो गया.
20 अगस्त 1942 को अंग्रेजी कलेक्टर ने औपचारिक रूप से बलिया का प्रशासन चित्तू पांडे को सौंप दिया और जिले से निकल गया.
चार दिन का स्वराज
चित्तू पांडे बलिया के पहले ‘स्वराज कलेक्टर’ बने और पंडित महानंद मिश्रा को पुलिस कप्तान घोषित किया गया. जनता ने भी इस स्वतंत्र सरकार का खुले दिल से स्वागत किया और हजारों रुपये का चंदा दिया. हालांकि, यह स्वराज सरकार चार दिन बाद अंग्रेजी सेना के बल पर खत्म कर दी गई, लेकिन बलिया ने साबित कर दिया कि आजादी की कीमत जान देकर भी चुकाई जा सकती है.
भारत की आजादी से पांच साल पहले का यह छोटा सा अध्याय न सिर्फ हिंदुस्तान के बल्कि ब्रिटिश शासन के इतिहास में भी अनोखी मिसाल बनकर दर्ज है — जहां एक जिले ने बिना किसी बाहरी ताकत के अपने दम पर आजादी हासिल की.
Disclaimer: लेख में दी गई ये जानकारी सामान्य स्रोतों से इकट्ठा की गई है. इसकी प्रामाणिकता का दावा या पुष्टि ज़ी यूपी/यूके नहीं करता.