महोबा: जब पूरा देश श्रावण पूर्णिमा को रक्षाबंधन मनाता है, तब वीरभूमि महोबा इस पर्व को एक दिन बाद “परमा” को मनाती है इसकी जड़ें 842 साल पुराने एक ऐतिहासिक युद्ध से जुड़ी हैं, जो आज भी यहां के बुंदेलों की स्मृतियों और परंपराओं में जीवंत है.
पृथ्वीराज चौहान ने राजा परमाल पर किया था हमला
इतिहास के पन्नों में दर्ज यह कथा वर्ष 1182 की है, जब दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर चढ़ाई कर दी थी. प्रतिहार नरेश माहिल की साजिशों के चलते महोबा के राजा परमाल ने अपने वीर सेनापति आल्हा और ऊदल को राज्य से निष्कासित कर दिया था. मौके का फायदा उठाकर पृथ्वीराज ने महोबा को घेर लिया और कड़ी शर्तों के साथ राजा परमाल को आत्मसमर्पण का विकल्प दिया. चौहान ने कालिंजर और ग्वालियर के किलों के साथ राजकुमारी चंद्रावल को भी मांगा, जिसे लेकर दरबार में विरोध भड़क उठा.
रक्षाबंधन के दिन भीषण युद्ध
संकट की इस घड़ी में रानी मल्हना ने आल्हा-ऊदल को वापिस बुलाने का निर्णय लिया. मां देवल के धिक्कार और रानी चंद्रावल के पत्र के बाद दोनों भाई साधु के वेश में महोबा लौटे. रक्षाबंधन के दिन कीरत सागर तट पर चौहान सेना से भीषण युद्ध हुआ. इस युद्ध को “भुजरियों का युद्ध” कहा गया, जिसमें वीरता की मिसाल कायम करते हुए बुंदेलों ने विजय प्राप्त की.
युद्ध के चलते एक दिन देरी से लौटे भाई
युद्ध में शामिल बहनों की एक पीड़ा इतिहास बन गई — वे रक्षा सूत्र लिए भाइयों का इंतजार करती रहीं, जो युद्धभूमि में थे. जब भाई विजयी होकर लौटे, तब बहनों ने एक दिन देरी से राखी बांधकर उनकी लंबी उम्र की कामना की. तभी से महोबा में रक्षाबंधन ‘परमा’ को मनाया जाता है.
आज भी कीरत सागर तट पर बहनें कजली (अंकुरित गेहूं) भाइयों को देकर रक्षा का वचन लेती हैं और कजली का विसर्जन करती हैं. महोबा में यह पर्व सिर्फ राखी नहीं, वीरता की विजयगाथा और भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक बन चुका है.
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