Why Landslide Happen in Dharali: धराली में तबाही के कई घंटे हो गए हैं लेकिन इसकी वजहों की जानकारी किसी को नहीं है. क्या वहां बादल फटा था? क्या गांव के ऊपर कोई अनजान ग्लेशियर था जो टूटकर गिरा? या ऊपर कहीं जमा हो रहा पानी अचानक बहकर निकला? ये सब अलग-अलग थ्योरी है...लेकिन IMD समेत कोई आखिरी नतीजे पर नहीं पहुंच सका है.
हम आपके लिए चौंकाने वाली एक ऐसी जानकारी लेकर आए हैं कि धराली में जो हुआ. वो मुमकिन है कि क्लाउड बर्स्ट था ही नहीं. फिर सवाल है कि कल जो धराली में हुआ वो बादल फटने की घटना नहीं थी तो क्या था? हम आगे बताएंगे. लेकिन उससे पहले उत्तरकाशी और खासतौर से धराली की टोपोग्राफी को समझते हैं.
पहाड़ों में भूस्खलन होना सामान्य घटना
दरअसल, धराली की प्रकृति ही ऐसी है कि वहां भारी बारिश सामान्य है. भारी बारिश की वजह से लैंडस्लाइड भी सामान्य है. लैंडस्लाइड के वक्त नदियों में टनों पहाड़ी मलबों का बहना भी सामान्य है. उत्तरकाशी उत्तराखंड के उन इलाकों में शामिल है, जिन्हें हम ‘upper hilly area’ कहते हैं. यानी पहाड़ में भी ऊंचाई वाले इलाके और ऊंचाई वाले ऐसे पहाड़ी इलाकों में बादल फटना भी आम घटना है. तेज भारी बारिश तो बहुत ही आम.
ऐसे इलाकों में एक बहुत ही छोटे इलाके में अचानक भारी बारिश हो जाती है. जिसे हम बादल फटना कहते हैं. तबाही की सबसे बड़ी वजह बनती है पहाड़ों की तीखी ढलान क्योंकि बादल फटने या लगातार तेज बारिश के बाद जो पानी निकलता है. उसकी गति तीखी ढलान की वजह से और तेज हो जाती है. इतनी कि रास्ते में जो भी आए उसे तहस-नहस कर दे. पहले कहा गया कि यही कल धराली में हुआ. हालांकि अब कहा जा रहा है कि कल बादल तो नहीं फटा था. तो धराली में कल क्या हुआ था वो हम आगे बताएंगे. उससे पहले उत्तरकाशी की भौगोलिक स्थिति को समझते हैं.
हिमालय की दक्षिणी ढलान पर बसा है उत्तरकाशी
असल में उत्तरकाशी हिमालय के दक्षिणी स्लोप यानी ढलान पर बसा हुआ है. दक्षिण-पश्चिमी मानसून इसी दिशा से इलाके को हिट करता है. जो गहरी घाटियों की वजह से और भी ज्यादा असरदार या कह सकते हैं कि भयावह हो जाता है. यही कारण है कि उत्तरकाशी में औसतन सालाना 1289 मिलीमीटर बारिश होती है. 1969 में तो यहां 2436 मिलीमीटर बारिश हुई थी जो रिकॉर्ड है.
जिस ढलान पर धराली बसा है, उस पर पेड़ काफी कम हैं. ऐसे में देर तक हुई तेज बारिश से पहाड़ों का टूटना और पानी के साथ बह निकलना सामान्य बात है. जाहिर है ऐसे पहाड़ी इलाकों में बसावट बनाना आपदा को न्योता देना है. लेकिन हमने धराली को विस्तार देकर आपदा को न्योता दिया. जिसे कुदरत ने अब दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से समेट दिया है.
धराली में आई तबाही की असल वजह क्या थी?
हम आपके लिए तीन अलग-अलग साइंटिफिक थ्योरी लेकर आए हैं. कुछ मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि कल धराली में जो हुआ वो क्लाउ बर्स्ट यानी बादल फटना नहीं था. ये सामान्य लेकिन लगातार हुई बारिश थी, जिसने अलग वजहों से धराली में तबाही मचाई. ये वजहें हमने ही पैदा की थीं.अब आप बादल फटने की घटना क्या होती है और कल धराली की घटना कैसे कुछ और थी. ये समझिए.
वैज्ञानिक परिभाषा के मुताबिक 10 गुना 10 किलोमीटर के दायरे में अगर 1 घंटे में 100 मिलीमीटर या इससे अधिक बारिश होती है तो ये क्लाउड बर्स्ट है यानी बादल फटना. लेकिन IMD के मुताबिक कल यानी मंगलवार को पूरे उत्तरकाशी में सुबह साढ़े 8 बजे तक सिर्फ 2.7 मिलीमीटर बारिश हुई. फिर सुबह साढ़े 8 बजे से शाम साढ़े 4 बजे तक भी बादल फटने की जो परिभाषा है. उससे बेहद कम बारिश हुई. जबकि धराली की घटना इसी दौरान 1 बजकर 45 मिनट पर हुई.
कीचड़-मलबे में दबते चले गए सैकड़ों घर
तो आपने पहली थ्योरी समझी...जिसमें कहा गया है कि ऊपरी इलाकों में हुई लगातार बारिश से आपदा आई. जबकि दूसरी थ्योरी ये है कि धराली गांव के ऊपर कोई लोकल ग्लेशियर रहा होगा. जिसके टूटने से ये कुदरती हादसा हुआ. जबकि तीसरी थ्योरी कहती है कि ऊपरी इलाकों में हुई बारिश का पानी रिसकर गांव के ऊपर की पहाड़ियों में कहीं लेक की शक्ल में जमता रहा और जब वहां लोड बढ़ा तो सैलाब की शक्ल में बह निकला.
हालांकि ये हैरानी की बात है कि 32 घंटे बाद भी धराली में जो हुआ उसकी वजहों को नहीं तलाशा जा सका है. हम फिर कहेंगे कि धराली सबक है. हमें ऐसे हादसे रोकने हैं, इंसानी जानें बचानी है तो कुदरत के आदेश को समझना होगा. उत्तरकाशी के धराली की कुदरती सुंदरता उसके लिए दुर्भाग्य बन गई. 2011 की जनगणना के मुताबिक यहां सिर्फ 137 परिवार रहते थे. जैसा कि पहाड़ी गावों में होता है. उनके छोटे-छोटे मकान थे.
प्रकृति से खिलवाड़ पड़ी भारी
बताया जाता है कि यहां करीब 550 तो होम स्टे थे. इसके अलावा कुछ होटेल्स भी थे...और बाकी स्थानीय लोगों के घर. सोचिए किस अंधाधुंध तरीके से धराली में निर्माण हुआ...! न नदी के रास्ते को देखा गया...न प्रकृति के दूसरे अवरोधों की परवाह की गई. पेड़ों का कटना भी धराली जैसी घटनाओं को लगातार न्योता दे रहा है. उत्तराखंड के 70% से अधिक क्षेत्र में वन है. लेकिन आसपास के मैदानी क्षेत्रों में जंगल वाले इलाके घटे हैं.... ऐसे में मानसूनी हवाओं को मैदानों में बरसने के लिए अनुकूल वातावरण नहीं मिल पाता और पर्वतीय क्षेत्रों में घने वनों के ऊपर पहुंचकर ये मानसूनी बादल अतिवृष्टि के रूप बरस जाते हैं...और ऐसी आपदाएं लेकर आते हैं.
धराली गांव के जिस हिस्से में ये त्रासदी आई है. वहां करीब 900 लोग रहते थे. इसके अलावा यहां सैलानियों की मौजूदगी भी रहती है. इस हिस्से में करीब 200 मकान थे. साथ ही 20-25 होटल या होम स्टे मौजूद थे. अब इनमें से ज्यादातर को या तो सैलाब साथ बहा ले गया या फिर ये बाढ़ में टूट गए हैं.
भारतीय सेना का कैंप भी आया चपेट में
इस मलबे में दबे लोगों को बचाने के लिए युद्धस्तर पर रेस्क्यू ऑपरेशन किया जा रहा है.. सैलाब की चपेट में आया धराली गांव.. और हर्षिल में सेना के कैंप से लापता लोगों की तलाश में NDRF, SDRF, ITBP और इंडियन आर्मी लगी हुई है. जब पहाड़ों से अचानक लाखों लीटर पानी रिहायशी इलाके में घुसा.. तो किसी को भागने तक का मौका नहीं मिला.. हर्षिल में सेना के कैंप से लेकर नीचे धराली गांव तक.. पानी के रास्ते में जो कुछ भी आया. वो धराशाई हो गया. इस सैलाब में गंगोत्री की यात्रा करने गए कई श्रद्धालुओं के लापता होने की भी खबर है. जो खीरगंगा के पास होमस्टे या होटलों में रुके थे.
कैसे कुदरती आपदाओं की फ्रीक्वेंसी बढ़ गई है?
हिमालय में होने वाली बारिश पहले देश के बड़े हिस्से के लिए राहत की बात होती थी...लेकिन अब हिमालय में होने वाली विनाशकारी घटनाएं डरा रही हैं. ऐसा क्यों हो रहा है. कुछ साइंटिफिक वजहों को समझते हैं. जेट स्ट्रीम- ये हवा की तेज धाराएं हैं, जो अब ज्यादा अस्थिर हो रही हैं. वजह है ग्लोबल वॉर्मिंग. इसका नतीजा है अचानक बेतहाशा बारिश.
हिमालय रीजन में हवा की अस्थिरता भी बढ़ी है. गर्म और ठंडी हवाओं के टकराने और इससे अचानक भारी बारिश की घटनाएं भी बढ़ी हैं. हिमालय में तीसरा बड़ा आसमानी बदलाव ऊंचाई पर बारिश का होना है. पहले 3 हजार से 4 हजार मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों में सिर्फ बर्फ गिरती थी. लेकिन अब बारिश भी हो रही है. जो अकसर खतरनाक तरीके से नीचे बह निकलती है.
बारिश की घटती फ्रीक्वेंस बढ़ा रही मुसीबत
देहरादून के मौसम विज्ञान केंद्र की रिसर्च के मुताबिक बारिश वाले दिनों की संख्या पिछले कुछ समय में घट गई है. जितनी बारिश पहले 7 दिनों में होती थी, वह अब केवल 3 दिनों में ही हो जा रही है. पहले मानसून का सीजन जून से सितंबर तक फैला होता था. वह अब सिकुड़कर केवल जुलाई-अगस्त तक सिमट गया है. लेकिन इतने ही समय में उतनी बारिश हो जा रही है, जितनी पहले होती थी.
जमीन के अंदर आने वाले भूकंप से भी खतरनाक और जानलेवा आसमानी बदलाव बन रहा है. भूकंप की फ्रीक्वेंसी उतनी नहीं होती. जितनी बादल फटने और इस तरह की दूसरी आपदाओं की हो रही है. 2010 से 2023...यानी पिछले 13 वर्षों में उत्तराखंड और हिमाचल जैसे राज्यों में बादल फटने जैसी घटनाओं में 1300 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. कल्पना कीजिए. 1300 प्रतिशत ज्यादा...!!!!
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