Bofors Case: खोजी पत्रकार चित्रा सुब्रमण्यम ने बोफोर्स घोटाले को लेकर एक किताब ‘बोफोर्सगेट: ए जर्नलिस्ट्स परस्यूट ऑफ ट्रुथ’ लिखी है. उसमें उन्होंने कई राज उद्घाटित किए हैं. उनकी ये किताब ऐसे वक्त चर्चा में सामने आ रही है जब बोफोर्स केस की जांच को लेकर फिर से कवायद शुरू हो रही है. सुब्रमण्यम ने दावा किया कि जब बोफोर्स केस का मुद्दा भारत में पहली बार उठा था तो उस वक्त जांच को पटरी से उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई. सीबीआई ने जांच को पटरी से उतारने के लिए बॉलीवुड एक्टर अमिताभ बच्चन की छवि को धूमिल करने के लिए मनगढ़ंत कहानियां गढ़ीं और बच्चन परिवार के खिलाफ राजनीतिक प्रतिशोध शुरू किया.
सुब्रमण्यम ने याद किया कि बच्चन उनके घर आए थे और पूछा था कि क्या उन्होंने उनका नाम देखा है. सुब्रमण्यम ने कहा कि बड़े पैमाने पर जांच को पटरी से उतारने की कोशिश की गई. फिर हमें पता चला कि बच्चन परिवार के बारे में कतई कुछ भी नहीं था.
ऐसा क्यों किया गया
उन्होंने कहा, ''अमिताभ अपने आप में एक स्टार हैं. उन्हें न तो राजनीतिक संरक्षण की जरूरत थी और न ही पैसे की. वे उन्हें नीचे गिराने की कोशिश कर रहे थे. राजीव गांधी से लेकर वी पी सिंह तक सभी सरकारें उन्हें नीचे गिराने की कोशिश कर रही थीं. मुझे लगता है कि लोग इस आदमी से ईर्ष्या करते हैं. उन्हें किसी की जरूरत नहीं है.''
बोफोर्स घोटाले और गांधी परिवार के बीच संभावित संबंधों के बारे में पूछे जाने पर सुब्रमण्यम ने कहा कि वह राजीव गांधी के बारे में निश्चित नहीं हैं, लेकिन पैसा इटली के बिजनेसमैन ओतावियो क्वात्रोची तक पहुंचा था.
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नए सिरे से जांच
अमेरिका से सहायता के लिए सीबीआई द्वारा हाल ही में किए गए अनुरोध के बारे में सुब्रमण्यम ने कहा कि अब मैं कुछ अखबारों में पढ़ रही हूं कि एक अनुरोध पत्र (एलआर) संयुक्त राज्य अमेरिका को भेजा जा रहा है. मेरा सवाल है कि ऐसा अनुरोध स्वीडन से क्यों नहीं किया जा रहा है? आखिरकार यह सबसे बड़ी जांच है. मुझे यह अजीब लगता है कि भारतीय जांचकर्ता स्वीडिश जांचकर्ताओं से संपर्क नहीं करना चाहते. वो ऐसा क्यों कर रहे हैं ये बात समझ में नहीं आई? दरअसल बोफोर्स कंपनी, स्वीडन की फर्म है.
पिछले दिनों सीबीआई ने अमेरिका को एक न्यायिक अनुरोध भेजकर निजी जांचकर्ता माइकल हर्शमैन से जानकारी मांगी है. माइकल जे हर्शमैन ‘फेयरफैक्स ग्रुप’ के प्रमुख हैं. वह 2017 में निजी जासूसों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारत आए थे. उन्होंने 64 करोड़ रुपये के बोफोर्स रिश्वत कांड के बारे में महत्वपूर्ण विवरण भारतीय एजेंसियों के साथ साझा करने की इच्छा व्यक्त की थी. अपने प्रवास के दौरान उन्होंने विभिन्न मंचों पर आरोप लगाया कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने घोटाले की जांच को पटरी से उतार दिया था . उन्होंने कहा था कि वह सीबीआई के साथ विवरण साझा करने के लिए तैयार हैं.
उन्होंने एक इंटरव्यू में दावा किया था कि उन्हें 1986 में केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने विदेश में भारतीयों द्वारा मुद्रा नियंत्रण कानूनों के उल्लंघन और मनी लॉन्ड्रिंग की जांच एवं भारत के बाहर ऐसी संपत्तियों का पता लगाने के लिए नियुक्त किया गया था और उनमें से कुछ बोफोर्स सौदे से संबंधित थे.
बोफोर्स केस
1987 में स्वीडन के एक रेडियो चैनल ने आरोप लगाया था कि बोफोर्स सौदे को हासिल करने के लिए भारत के राजनीतिक नेताओं और रक्षा अधिकारियों को रिश्वत दी गई थी जिसके तीन साल बाद सीबीआई ने 1990 में मामला दर्ज किया था. इन आरोपों ने राजीव गांधी सरकार के लिए बड़ा परेशानी खड़ी कर दी थी और प्रतिद्वंद्वी दलों ने कांग्रेस पर निशाना साधने के लिए इसका इस्तेमाल किया था.
यह घोटाला स्वीडिश कंपनी बोफोर्स के साथ चार सौ 155 मिमी फील्ड हॉवित्जर तोपों की आपूर्ति के लिए 1,437 करोड़ रुपये के सौदे में 64 करोड़ रुपये की रिश्वत के आरोपों से संबंधित था.
(इनपुट: एजेंसी भाषा के साथ)
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