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जापान में सड़कों पर क्यों लगी होती हैं पानी की बोतलें? ये अजीबोगरीब परंपरा जानकर चकरा जाएगा माथा

Strange traditions Japan: जापान में पानी की बोतलें बिल्लियों को भगाने के लिए रखी जाती हैं. हालांकि इसका कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं है, फिर भी लोग इसे परंपरा और आदत के तौर पर आज भी अपनाते हैं. यह तरीका अब एक सांस्कृतिक हिस्सा बन चुका है, भले ही यह सच में काम करे या नहीं.

जापान में सड़कों पर क्यों लगी होती हैं पानी की बोतलें? ये अजीबोगरीब परंपरा जानकर चकरा जाएगा माथा
Shivam Tiwari|Updated: May 25, 2025, 12:02 PM IST
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Strange Traditions: अगर आप कभी जापान की गलियों में घूमने जाएं या जापानी स्ट्रीट्स के वीडियो देखें, तो आपको एक अजीबगरीबो चीज़ दिखेगी वो हैं सड़कों, दीवारों, बगीचों और फूलों के गमलों के पास प्लास्टिक की पारदर्शी पानी की बोतलें करीने से रखी होती हैं. पहली नजर में ये लगेगा जैसे किसी ने पिकनिक के बाद बोतलें वहीं छोड़ दी हों, लेकिन असल में इसका एक खास मकसद होता है.

दरअसल, इन बोतलों को जापान में "Nekoyoke" कहा जाता है, जिसका मतलब बिल्ली भगाने वाली चीज़ है लोगों का मानना है कि  ये बोतलें आवारा बिल्लियों को दूर रखने में मदद करती हैं. हालांकि ये सुनने में थोड़ा अजीब लग सकता है, लेकिन जापान में यह परंपरा दशकों से चली आ रही है.

कहां से शुरू हुई थी यह परंपरा

पानी की बोतलों से जानवरों को भगाने की यह तरकीब असल में 1980 के दशक में यूरोप और अमेरिका से शुरू हुई थी. उस समय लोग अपने लॉन से कुत्तों को दूर रखने के लिए ऐसी बोतलें रखते थे. यह आदत धीरे-धीरे जापान पहुंची, लेकिन वहां इसका इस्तेमाल बिल्लियों को दूर रखने के लिए होने लगा, क्योंकि जापान में आवारा कुत्ते बहुत कम होते हैं.

कैसे काम करती हैं ये बोतलें?

इस परंपरा के पीछे कई लोकप्रिय थ्योरीज़ हैं. कुछ लोग मानते हैं कि सूरज या स्ट्रीट लाइट की रोशनी बोतलों से टकराकर चमक पैदा करती है, जिससे बिल्लियां डर जाती हैं. कुछ कहते हैं कि बोतल में अपनी टेढ़ी-मेढ़ी परछाई देखकर बिल्लियां चौंकती हैं. वहीं, मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक ये बोतलें बिल्लियों की गहराई पहचानने की क्षमता को भ्रमित कर देती हैं. 

फिर भी क्यों जारी है ये परंपरा?

हालांकि इसका असर वैज्ञानिक रूप से साबित नहीं है, फिर भी जापान में लोग आज भी इन बोतलों को रखते हैं. ये अब सिर्फ एक ट्रिक नहीं, बल्कि एक पारंपरिक आदत बन चुकी है. कुछ लोग इसे आज़माते हैं "क्या पता काम कर जाए" वाले सोच से, तो कुछ बस आदत या संस्कृति के चलते ऐसा करते हैं.

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