Armenia-Azerbaijan peace deal: आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच 40 साल से चल रही खूनी लड़ाई अब खत्म होने की कगार पर है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मेजबानी में व्हाइट हाउस में दोनों देशों के नेता एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे. आर्मेनिया के प्रधानमंत्री निकोल पाशिनयान और अजरबैजान के राष्ट्रपति इल्हाम अलीयेव इस मौके पर मौजूद होंगे. ट्रंप ने अपनी साइट ‘ट्रुथ सोशल’ पर लिखा कि कई नेताओं ने इस जंग को रोकने की कोशिश की, लेकिन कामयाबी मुझे मिली.
आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच क्या हुआ समझौता?
न्यूज एजेंजी एपी के मुताबिक, तीन अमेरिकी अधिकारियों जिन्हें घोषणा से पहले सार्वजनिक रूप से बोलने की अनुमति नहीं थी और जिन्होंने नाम न छापने की शर्त पर बताया है कि इन समझौतों में एक प्रमुख कॉरिडोर बनाने की अमेरिका के लिए सफलता है. अधिकारियों के अनुसार, समझौते से अमेरिका को गलियारे को विकसित करने के लिए पट्टे के अधिकार मिलेंगे और इसे अंतर्राष्ट्रीय शांति और समृद्धि के लिए ट्रम्प रूट नाम दिया जाएगा. यानी यह समझौता नगोरनो-काराबाख क्षेत्र को लेकर दशकों पुराने झगड़े को खत्म करने की कोशिश है. इसके तहत एक खास ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर बनेगा, जिसे ‘ट्रंप रूट फॉर इंटरनेशनल पीस एंड प्रॉस्पेरिटी’ नाम दिया गया है. यह कॉरिडोर अजरबैजान को उसके नखचिवान क्षेत्र से जोड़ेगा जो आर्मेनिया की 32 किलोमीटर जमीन से अलग है. इस रास्ते में रेल, तेल-गैस पाइपलाइन और फाइबर ऑप्टिक लाइनें होंगी. सामान और लोग आसानी से आ-जा सकेंगे.
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अमेरिका ने कैसे कर दिया खेल? हाथिया ली जमीन
लेकिन इस समझौते में सबसे बड़ा ट्विस्ट यह है कि इस कॉरिडोर को विकसित करने का हक अमेरिका को मिलेगा और इसे निजी कंपनियां बनाएंगी. यानी इस जमीन पर अब अमेरिका का दबदबा होगा, जो दोनों देशों को खटक सकता है.
आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच करीब चालीस सालों से हो रही जंग?
लगभग चार दशकों तक आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच काराबाख क्षेत्र को लेकर खूनी संघर्ष चला. इस क्षेत्र को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नागोर्नो-काराबाख के नाम से जाना जाता है. सोवियत काल में मुख्य रूप से अर्मेनियाई लोगों की आबादी वाले इस क्षेत्र को अज़रबैजान के भीतर स्वायत्त दर्जा मिला था. लेकिन ईसाई अर्मेनियाई और मुस्लिम अज़रबैजानियों के बीच पुराना तनाव बना रहा जो 1915 के अर्मेनियाई नरसंहार की यादों से और गहरा था. जिसके बाद 1988 में हिंसक झड़पों में बदल गया.
लाखों लोग मारे गए
1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद यह तनाव पूर्ण युद्ध में बदल गया. इस युद्ध में करीब 30,000 लोग मारे गए और लगभग 10 लाख लोग बेघर हो गए. 1994 में युद्धविराम के बाद अर्मेनियाई बलों ने काराबाख और अज़रबैजान के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया. सितंबर 2020 में अज़रबैजान ने क्षेत्र को वापस लेने के लिए सैन्य अभियान शुरू किया. तुर्की के समर्थन से छह हफ्ते की भीषण लड़ाई में 6,700 से ज्यादा लोग मारे गए. रूस की मध्यस्थता से शांति समझौता हुआ और वहां रूसी शांति सैनिक तैनात किए गए. सितंबर 2023 में अज़रबैजान ने एक और तेज अभियान चलाकर पूरे काराबाख पर कब्जा कर लिया. इसके बाद डर के मारे करीब एक लाख अर्मेनियाई लोग आर्मेनिया भाग गए. जिसके बाद लगातार तनाव मार काट मची रही. लेकिन अब यह समझौता दोनों देशों के बीच शांति लाने की कोशिश है.
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ट्रंप ने कैसे किया कमाल? करा दिया आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच सीजफायर
ट्रंप के विशेष दूत स्टीव विटकॉफ ने बाकू जाकर इस समझौते की नींव रखी. ट्रंप का दावा है कि यह कॉरिडोर दक्षिण कॉकस क्षेत्र को आर्थिक तौर पर मजबूत करेगा. लेकिन सवाल यह है कि इस कॉरिडोर के लिए आर्मेनिया की जमीन पर अमेरिका का कब्जा दोनों देशों को कितना रास आएगा? आर्मेनिया पहले ही रूस से दूरी बनाकर पश्चिमी देशों के करीब जा रहा है, और यह सौदा उसकी संप्रभुता पर सवाल उठा सकता है.
क्या है विवाद?
इस कॉरिडोर को लेकर आर्मेनिया की चिंता बड़ी है. अजरबैजान चाहता है कि यह रास्ता पूरी तरह उसके नियंत्रण में हो, लेकिन आर्मेनिया इसे अपनी आजादी पर हमला मानता है. साथ ही, आर्मेनिया अपने कैदियों की रिहाई और संविधान में बदलाव की मांग को लेकर भी अड़ा हुआ है. इस समझौते से तुर्की के साथ भी आर्मेनिया के रिश्ते बेहतर हो सकते हैं, जो 1993 से बंद हैं. लेकिन अमेरिका का इस जमीन पर दखल दोनों देशों के लिए नया सिरदर्द बन सकता है.