Mahar Regiment: भारतीय सेना के जांबाज सैनिक 24 घंटे और 365 दिन देश की सीमाओं की निगेहबानी करते हैं. सीमा पर होने वाले किसी भी तरह के हमले और घुसपैठ का जवाब देने के लिए देश के रक्षक हमेशा तैयार रहते हैं. इंडियन आर्मी हमेशा से ही देश का गौरव रही है. देश के सैनिक जंग लड़ते हैं, दुश्मनों से लोहा लेते हैं और देश के लिए शहीद होते हैं. ठंड हो या गर्मी, बारिश हो या तूफान, हर वक्त देश की सुरक्षा में तैनात रहते हैं. जिससे देश के आम लोग घरों में चैन की नींद सो सकें. भारतीय सेना, दुनिया की बड़ी-बड़ी सेनाओं को टक्कर देने का माद्दा रखती है.
सभी समुदायों और क्षेत्रों के सैनिकों को किया जाता है शामिल
महार रेजिमेंट भारतीय थल सेना की एक इन्फैंट्री रेजिमेंट है. भारतीय सेना में महाराष्ट्र के महार सैनिकों को मिलाकर महार रेजिमेंट बनाने की योजना थी लेकिन बाद मे इस विचार को बदल दिया गया. ये भारतीय सेना की एकमात्र ऐसी रेजिमेंट है, जिसमें भारत के सभी समुदायों और क्षेत्रों के सैनिकों को शामिल किया जाता है.
शिवाजी की सेना का प्रमुख हिस्सा थे महार योद्धा
महार रेजिमेंट का इतिहास पुराना और वीरता से भरा है. सबसे पहले मराठा महाराजा शिवाजी ने महारों को अपनी सेना में फोर्ट गार्ड और स्काउट्स के रूप में भर्ती किया था. महारों की बहादुरी को देखते हुए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी सेना में शामिलव किया और बड़ी संख्या में महारों की भर्ती की थी. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का मकसद था कि युद्ध में पेशवाओं के खिलाफ, महारों को लड़ाना. महार सैनिक कंपनी की बॉम्बे नेटिव आर्मी का छठवां हिस्सा थे.
‘बैटल ऑफ कोरेगांव’ के हीरो थे महार सैनिक
करीब 200 साल पहले अंग्रेजी की तरफ से महार सैनिकों ने ‘बैटल ऑफ कोरेगांव’ में बड़ी जीत हासिल की थी. 1 जनवरी 1818 को भीमा-कोरेगांव में अंग्रेजों की सेना ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के 28000 सैनिकों को युद्ध के मैदान में धूल चटा दी थी. ब्रिटिश सेना ने महार योद्धाओं की बदौलत ही युद्ध में पेशवा सैनिकों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था. दिसंबर 1817 में पेशवा को सूचना मिली थी कि ब्रिटिश सेना शिरुर से पुणे पर हमला करने के लिए निकल चुकी है. इसलिए उन्होंने ब्रिटिश सैनिकों को रोकने का फैसला किया. 800 सैनिकों की ब्रिटिश फौज भीमा नदी के किनारे कोरेगांव पहुंची. इनमें करीब 500 महार समुदाय के सैनिक थे. लेकिन ब्रिटिश सेना में महार सैनिको के साथ भेदभाव होता था इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि महार रेजिमेंट के ज्यादातर सिपाही बिना पेट भर खाने के 27 किलोमीटर पैदल चलकर युद्ध स्थल तक पहुंचे थे. और इन 500 लड़ाकों ने हजारों सैनिकों के साथ 12 घंटे तक बहादुरी से युद्ध लड़ा था.
युद्ध में वीरता से लड़ने के लिए महार सैनिकों को सम्मानित भी किया गया था. बैटल ऑफ कोरेगांव में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक चौकोर मीनार बनाई गई. जिसे ‘कोरेगांव स्तंभ’ के नाम से जाना जाता है. ये महार रेजिमेंट के साहस का प्रतीक है. इस मीनार पर उन शहीदों के नाम खुदे हुए हैं जो इस लड़ाई में मारे गए थे.
जब अंग्रेजों ने महारों की भर्ती पर लगा दी थी रोक
1857 के विद्रोह के बाद, अंग्रेजों ने अपनी भर्ती-नीतियों में बदलाव किया और 1892 में महारों की भर्ती पर रोक लगा दी. रेजिमेंट में उपलब्ध ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक 1892 से तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने केवल उच्च वर्ग की जातियों को ही सेना में लेने नियम बना दिया था. इस फैसले का विरोध डॉ. अंबेडकर के पिता सूबेदार मेजर रामजी मालोजी सकपाल ने किया था.
महारों की वीरता को देखते हुए पहले विश्वयुद्ध में हजारों महारों को इंडियन रॉयल आर्मी में फिर से भर्ती किया गया. अपनी स्थापना के 75 वर्ष पूरे कर चुकी महार रेजिमेंट की स्थापना में भारत के संविधान निर्माता डॉ. बीआर अंबेडकर की बड़ी भूमिका रही. 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में महारों के लिए एक अलग बटालियन बनाने की मांग फिर जोर पकड़ने लगी. उस समय के कांग्रेसी नेता डॉ. भीमराव अंबेडकर और वीर सावरकर ने अंग्रेज सरकार पर दबाव बनाया. उनके अधिकारियों ने महारों की एक नियमित बटालियन के लिए सरकार से मांग की जिसे 1917 में मान लिया गया. अंग्रेज सरकार ने वर्ष 1917 में 111-महार बटालियन की स्थापना कर दी, लेकिन 3 साल बाद ही आर्थिक कारणों का हवाला देते हुए 1920 में इसका विलय 71 पंजाब रेजिमेंट में कर दिया गया.
दोनों विश्व युद्ध के दौरान 111-महार बटालियन अपनी सेवाएं देती रही. साथ ही अलग महार रेजिमेंट बनाने की मांग भी उठ रही थी. इन प्रयासों के नतीजा था कि 1941 में ‘महार रेजिमेंट’ की स्थापना का फैसला लिया गया. 1 अक्टूबर 1941 को नानावाडी यानि बेलगाम में महार रेजिमेंट का पुर्नगठन किया गया. 2016 में 75 साल पूरे होने के मौके पर इस रेजिमेंट की 22 बटालियन तैयार की गयी. 22वीं बटालियन का गठन 2016 में ढाना मिलिटरी स्टेशन पर किया गया था जिसे शेरदिल बाइस के नाम भी जाना जाता है.
इंडियन आर्मी को महार रेजिमेंट ने दिए दो सेना प्रमुख
महार रेजिमेंट ने देश को दो सेना प्रमुख दिए हैं: पहले जनरल के वी कृष्ण राव और दूसरे जनरल के सुंदरजी. जनरल केवी कृष्णाराव ने 1942 को महार रेजिमेंट में कमीशन प्राप्त किया और द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लिया. कृष्ण राव 1 जून 1981 से 31 जुलाई 1983 तक चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ रहे. जनरल कृष्णास्वामी सुंदरजी ने 1946 में दो महार में कमीशन प्राप्त किया. वे 1963 से 1965 तक 1 महार के कमांडर रहे. जनरल कृष्णास्वामी सुंदरजी 1 फरवरी 1985 से 31 मई 1988 तक चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के पद पर रहे थे.
महार रेजिमेंट ने वीर योद्धाओं ने 1962 के युद्ध में भी चीनी सैनिकों का डटकर सामना किया था. भारत-चीन के बीच साल 1962 में हुए युद्ध में भी महार रेजिमेंट ने लद्दाख में अहम भूमिका निभायी थी.
महार रेजिमेंट का नारा, ‘बोलो हिंदुस्तान की जय’
‘बोलो हिंदुस्तान की जय’ के नारे के साथ 1971 की युद्ध में भी महार सैनिकों ने पंजाब में पाकिस्तान की सेना को सबक सिखाया था. इस युद्ध में दुश्मन सेना महार सैनिकों के सामने टिक नहीं सकी था. महार रेजिमेंट के सैनिकों ने 1971 के युद्ध में अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए करीब दो महीने तक मुक्ति वाहिनी सेना को युद्ध के गुर भी सिखाए थे. महार सैनिकों के त्रिपुरा के पास छतनापुर में पाक सैनिकों से लोहा लेने का टास्क कैप्टन कल्याण चंद को मिला था. महार रेजिमेंट की टुकड़ी ने जांबाजी से युद्ध किया और उनके साथी जवान अनुसुईया प्रसाद इस लड़ाई में शहीद हुए थे, जिन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र दिया गया.
1987 में श्रीलंका में शांति कार्रवाई के दौरान भी दूसरी रजिमेंट के साथ महार सैनिकों की भी बड़ी भूमिका थी.
महार रेजिमेंट ने कारगिल युद्ध में दिखाया युद्ध कौशल
कारगिल युद्ध के दौरान भी महार रेजिमेंट ने अपनी वीरता का परिचय दिया था. पाकिस्तान के साथ हुआ कारगिल युद्ध 26 जुलाई, 1999 को विजय के साथ खत्म हुआ था. कारगिल युद्ध में महार रेजिमेंट की 9वीं और 12वीं बटालियन ने शौर्य का परिचय देते हुए पाकिस्तानियों का जमकर सामना किया था. पाकिस्तानी सेना को खदेड़ते हुए जब जवान ऊंची पहाड़ियों पर पहुंचे और दुश्मन के पैर उखाड दिए.
दुश्मन देश पाकिस्तान 1999 में हुए कारगिल युद्ध में पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरा था. उसने भारतीय सेना की आंखों में धूल झोंकने के लिए एक शातिर चाल चली थी. पाकिस्तानी सैनिकों ने बर्फीले पहाड़ों पर लड़ने और कब्जा करने का मंसूबा बनाया, जिसके लिए उस वक्त बड़ी चालाकी एक रणनीति बनाई थी, जिसके तबत बर्फ के जैसे दिखने वाले बंकर पाक सेना अपने साथ लायी थी. ये बंकर ऐसे थे कि उन्हें देखकर कोई भी बर्फ का टीला समझता और ध्यान तक नहीं देता. बर्फ जैसा दिखने वाला ये बंकर फाइबर से तैयार किया गया था. हालांकि पाकिस्तान की ये चाल भी बर्बाद हो गई. ऐसे बंकरों की पहचान करके महार रेजिमेंट के जवानों ने उन्हें तबाह कर दिया. एक ऐसा ही बंकर याद के तौर पर महार रेजिमेंट के सैनिक साथ ले आए थे, जिसे महार रेजिमेंट के संग्रहालय में रखा गया है.
इस रेजिमेंट का ध्येय वाक्य ‘यश सिद्धि’ है और ये रेजिमेंट ‘बोलो हिंदुस्तान की जय’ का नारा लगाते हुए युद्ध के मैदान में दुश्मन का सामना वीरता से करती है. रेजिमेंट का प्रतीक चिन्ह- दो क्रॉस मीडियम मशीन गन है. जो एक त्रिकोणीय स्तम्भ पर टिकी हैं. महार रेजिमेंट का लोगो आजादी के पहले कोरेगांव का स्तंभ था.
मध्य प्रदेश के सागर में है महार रेजिमेंट का सेंटर
महार रेजिमेंट का सेंटर मध्य प्रदेश के सागर जिले में है. महार रेजिमेंट के वीरों को कड़ी ट्रेनिंग और परीक्षा से गुजरना पड़ता है. ट्रेनिंग सेंटर्स में जवानों को हथियार चलाने से लेकर ऑपरेशन की ट्रेनिंग दी जाती है. दुश्मनों से मुकाबला करने के लिए पर्वतों, जंगलों में प्रशिक्षण कैंप लगाए जाते हैं. फर्राटा दौड़, लंबी दौड़, व्यायाम, युद्ध अभ्यास, कठिन रास्तों को पार करना, कूदना, चढना सब ट्रेनिंग का हिस्सा होते हैं.थका देने वाली ट्रेनिंग और सख्त अनुशासन के बाद महार रेजिमेंट का हिस्सा बनने का अवसर प्राप्त होता है.
जवान को रात में भी घने जंगल और दुर्गम पहाड़ों में छिपे दुश्मनों की पहचान कर उन्हें निशाना बनाने का अभ्यास करते हैं. कैसे भी हालात में दुश्मन को मार गिराना इनकी ताकत है. महार रेजिमेंट को अभी तक ढेरों सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं. इनमें से 1 परमवीर चक्र, 4 महावीर चक्र, 29 वीर चक्र, 1 कीर्ति चक्र, 12 शौर्य चक्र, 22 विशिष्ट सेवा मैडल और 63 सेना मेडल शामिल हैं.
महार रेजिमेंट ने देश का सिर गर्व से ऊंचा रखा है इसीलिए यह देश की शान है. आजादी के बाद जब-जब दुश्मनों ने हमारी पवित्र धरती पर अपनी नजरें डाली तब-तब भारत माता की सेवा में तैनात सैनिकों ने बहादुरी से देश की रक्षा की है.
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