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जब 'लाल किले से आई आवाज, सहगल, ढिल्लों, शाहनवाज'; आखिर आजादी से ठीक पहले 'आजाद हिंद फौज' पर क्यों हुआ मुकदमा?

Red Fort Trials Azad Hind Fauj 1945: ब्रिटिश सरकार ने नवंबर 1945 में दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले में आजाद हिंद फौज के कुछ शीर्ष अधिकारियों पर मुकदमा शुरू किया. जिन तीन प्रमुख अधिकारियों पर मुकदमा चला, वे कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरबक्श सिंह ढिल्लों और मेजर जनरल शाह नवाज खान थे. 

जब 'लाल किले से आई आवाज, सहगल, ढिल्लों, शाहनवाज'; आखिर आजादी से ठीक पहले 'आजाद हिंद फौज' पर क्यों हुआ मुकदमा?
  • आजाद हिंद फौज के खिलाफ लाल किले में चला मुकदमा
  • 'लाल किले से आई आवाज, सहगल, ढिल्लों, शाहनवाज'

Red Fort Trials Azad Hind Fauj 1945: द्वितीय विश्व युद्ध खत्म हो चुका था. देश की आजादी की सुगबुगाहट काफी तेज थी. दुनिया ने तबाही के बाद राहत की सांस ली थी, लेकिन भारत में एक नई कहानी की शुरुआत हो रही थी. यह कहानी थी उन हजारों भारतीय सैनिकों की, जिन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में 'आजाद हिंद फौज' में शामिल होकर ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. युद्ध की समाप्ति के बाद, जब इन सैनिकों को ब्रिटिश सेना ने पकड़ा, तो उनके साथ क्या हुआ, यह इतिहास का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय है. ब्रिटिश सरकार ने इन सैनिकों को 'गद्दार' मानते हुए उन पर मुकदमा चलाने का फैसला किया, और इसी फैसले ने भारत की आजादी की लड़ाई को एक नई दिशा दे दी.

जब 'गद्दार' कहलाए देश के असली नायक
इस ऐतिहासिक सुनवाई और उसके बाद की घटनाओं का जिक्र कई किताबों में मिलता है. बता दें, पीटर वार्ड फेय द्वारा लिखी गई किताब ‘द फॉरगॉटन आर्मी: इंडियाज आर्म्ड स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस’ में भी इस घटना का जिक्र है. इस किताब में बताया गया है कि कैसे ब्रिटिश सरकार ने सोचा था कि इन सैनिकों पर मुकदमा चलाने से जनता उनके खिलाफ हो जाएगी. लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा. इन मुकदमों ने पूरे देश में एक नई लहर पैदा कर दी. कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा जैसे तमाम राजनीतिक दल इन सैनिकों के समर्थन में एक साथ आ गए.

'लाल किले से आई आवाज, सहगल, ढिल्लों, शाहनवाज' जैसे नारे पूरे देश में गूंजने लगे. इन मुकदमों की सुनवाई की खबरों ने पूरे देश को एकजुट कर दिया. उस समय के बड़े वकील जैसे जवाहरलाल नेहरू, भूलाभाई देसाई और तेज बहादुर सप्रू ने इन सैनिकों का बचाव करने के लिए एक 'डिफेंस कमेटी' बनाई. इस कमेटी ने अदालत में यह तर्क दिया कि ये सैनिक कोई गद्दार नहीं थे, बल्कि वे अपनी मातृभूमि को आजाद कराने के लिए युद्ध लड़ रहे थे.

ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा
हालांकि, ब्रिटिश कोर्ट-मार्शल ने इन तीनों अधिकारियों को 'ब्रिटिश सम्राट के खिलाफ युद्ध छेड़ने' का दोषी पाया और उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई. लेकिन इस फैसले के बाद पूरे देश में विरोध और भी उग्र हो गया. जनता के भारी दबाव और भारतीय सेना में बढ़ती बेचैनी को देखते हुए, तत्कालीन कमांडर-इन-चीफ सर क्लाउड औचिनलेक को यह सजा माफ करनी पड़ी. इन तीनों अधिकारियों को उनकी सेवा से बर्खास्त कर दिया गया, लेकिन उन्हें मौत की सजा नहीं दी गई.

इस घटना के बाद, ब्रिटिश सरकार ने बाकी बचे आजाद हिंद फौज के सैनिकों पर भी मुकदमे बंद कर दिए. भले ही इन सैनिकों को शुरुआती दौर में स्वतंत्र भारत की सेना में शामिल नहीं किया गया, लेकिन उनका बलिदान और राष्ट्रवाद की भावना भारत की आजादी के लिए एक मजबूत प्रेरणा बन गई. उनकी कहानी आज भी भारत के इतिहास का एक बहुत ही गौरवशाली और महत्वपूर्ण हिस्सा है.

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