Ancient indian kings: भारत का इतिहास जितना प्राचीन है, उतनी ही गहरी संस्कृति है. भारतीय संस्कृति व परंपरा से दुनिया वाकिफ है, जिसकी जड़ें हमारे इतिहास में निहित हैं. भारत में एक वक्त ऐसा भी था, जब राजा-रानियों को केवल इंसान ही नहीं, बल्कि भगवान के रूप में पूजा जाता था. आइए ऐसे ही एक काल से रूबरू होते हैं. जहां के बाशिंदों ने अपने राजा-रानी को देवतुल्य माना करते थे.
गुप्त काल में राजा कहलाए 'देव'
यह विचार करीब 320 ईसा पूर्व से 550 ईसा पूर्व तक गुप्तकाल में पनपा. इस समय राजा को देवतुल्य मानना अपने चरम पर पहुंचा. इस काल को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' भी कहा जाता है, जहां कला, विज्ञान, साहित्य और धर्म ने बहुत तरक्की की. इसी समय, राजाओं के इस दैवीय स्वरूप की परिकल्पना को और मजबूत किया गया, जिससे उनकी सत्ता को अधिक मान्यता और स्थिरता मिली.
इतिहासकारों के मुताबिक, गुप्तकाल में राजा को पृथ्वी पर देवता का प्रतिनिधि माना जाता था, और कभी-कभी उन्हें स्वयं देवता का स्वरूप भी समझते थे. प्रयाग-प्रशस्ति में महान सम्राट समुद्रगुप्त को 'लोक्धावनो देवस्य' यानी 'देव' कहा गया है. इस ग्रंथ के मुताबिक, वह मानवीय क्रियाएं करते थे, जिससे वे मनुष्य लगते थे, अन्यथा वे देवता के समान ही थे. प्रयाग-प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को 'अचिन्त्यपुरुष' यानी भगवान विष्णु भी कहा गया है. उनकी तुलना कुबेर, वरुण, इंद्र और यमराज जैसे देवताओं से भी की गई है.
इन उपाधियों का क्या था धार्मिक महत्व?
समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य जैसे महान गुप्त सम्राटों को तो साक्षात 'अप्रतिरथ' यानी भगवान विष्णु भी कहा गया है. इतिहासकार हरिषेण ने समुद्रगुप्त को सज्जनों के उदय और दुर्जनों के पतन का कारण माना है. गुप्त सम्राटों की उपाधिया भी उनके दैवीय होने की अवधारणा को बताती हैं. उन्होने 'परमदेवत्', 'महाराजाधिराज', 'राजाधिराज', 'एकाधिराज' और 'परमेश्वर' जैसी उपाधिया धारण कीं. राजाओं के प्रति यह दैवीय भावना उस युग की मुख्य विशेषता थी, क्योंकि राजाओं को देवताओं के अंश से बना माना जाता था.
वहीं, यह विचार याज्ञवल्क्य और नारद स्मृतियों में भी लिखा है, और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी इसका जिक्र मिलता है. गुप्त शासकों ने इसका प्रयोग जनता में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए किया था.
कैसा होता था इन राजाओं का शासन
राजा को दैवीय मानने के बावजूद, वे स्वयं विधि-विधानों यानी कानूनों का उल्लंघन नहीं कर सकते थे. राजा प्रशासन का मुख्य व्यक्ति था, जिसके पास अधिकार और शक्तियां बहुत अधिक थीं. वह कार्यपालिका का सर्वोच्च अधिकारी, न्याय का मुख्य न्यायाधीश और सेना का सर्वोच्च सेनापति भी होता था.
वहीं, युद्ध के समय वह स्वयं सेना का संचालन करता था. प्रशासन के सभी उच्च अधिकारियों की नियुक्ति सम्राट द्वारा ही की जाती थी, और वे सभी उसी के प्रति जिम्मेदार होते थे. सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो राजा की स्थिति एक निरंकुश शासक जैसी दिखती थी, लेकिन व्यवहार में वह उदार और लोगों के हितों के लिए काम करता था.
रानियों का शासन में योगदान
गुप्तकाल में ऐसी रानियों के भी उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने अपने पतियों के साथ मिलकर शासन किया. कुमार देवी ने अपने पति चंद्रगुप्त प्रथम के साथ मिलकर शासन चलाया था. इसी तरह, चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता ने भी वाकाटक राज्य के शासन का संचालन किया था. यह दिखाता है कि इस काल में महिलाओं का भी शासन और राजनीति में महत्वपूर्ण योगदान था, और वे केवल घरेलू भूमिकाओं तक सीमित नहीं थीं. यह प्राचीन भारत की अनमोल धरोहर मानी जाती है.
ये भी पढ़ें- भारत में पहली बार इमरजेंसी कब लगी, इंदिरा गांधी नहीं ये थी असली वजह