14 अगस्त 1947 की शाम हर शख्स के हिस्से में अलग-अलग कहानियां लेकर आई. किसी ने आजाद आसमान की ओर घंटों निहारा तो कोई अपनी सरजमीं को छोड...
14 अगस्त, 1947 की शाम, दिल्ली में हर तरफ एक अजीब सा माहौल था. जहां एक तरफ आजादी का उत्साह था, वहीं दूसरी तरफ बंटवारे का दर्द और हिंसा की आशंका भी थी. यह सिर्फ एक दिन नहीं था, बल्कि लगभग 200 सालों की गुलामी के बाद एक नए युग की शुरुआत थी. घड़ी की हर टिकटिक इतिहास रच रही थी. उस रात, जो कुछ हुआ, वह सिर्फ एक समारोह नहीं था, बल्कि एक राष्ट्र के पुनर्जन्म का गवाह था. आइए, जानते हैं आजादी से ठीक पहले के उन आखिरी 24 घंटों की कहानी.
जैसे-जैसे शाम ढल रही थी, दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन हॉल में गहमागहमी बढ़ रही थी. उस वक्त आज का संसद भवन का सेंट्रल हॉल ही कॉन्स्टिट्यूशन हॉल हुआ करता था. तब भारतीय विधान परिषद के सदस्य एक ऐतिहासिक बैठक के लिए इकट्ठा हो रहे थे. बाहर बारिश हो रही थी, लेकिन लोगों का उत्साह कम नहीं था.
हजारों लोग कॉन्स्टिट्यूशन हॉल के बाहर भीगते हुए भी इस ऐतिहासिक पल का गवाह बनने के लिए जमा थे. इस बैठक की अध्यक्षता डॉ. राजेंद्र प्रसाद कर रहे थे. शाम 6 बजे से ही ब्रिटिश शासन का प्रतीक झंडा 'यूनियन जैक' उतार दिया गया था. अब हर तरफ तिरंगा फहराने की तैयारी हो रही थी.
रात 11 बजे बैठक शुरू हुई. नेताओं ने अपने विचार रखे, लेकिन सभी को उस एक पल का इंतजार था. ठीक रात 12 बजे, जब दुनिया सो रही थी, तब भारत ने जागकर अपनी आजादी का स्वागत किया. उस समय, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपना ऐतिहासिक भाषण दिया, जिसे 'ट्रिस्ट विद डेस्टिनी' के नाम से जाना जाता है. उन्होंने अपने भाषण में कहा था, ‘कई साल पहले हमने नियति से एक वादा किया था, और अब वह समय आ गया है जब हम उस वादे को पूरी तरह से नहीं, लेकिन काफी हद तक निभाएंगे.’ इस भाषण ने भारत के लोगों के दिलों में एक नई उम्मीद और जोश भर दिया.
यह समारोह सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं था. इसके तहत औपचारिक रूप से ब्रिटिश सरकार ने सत्ता भारत के प्रतिनिधियों को सौंपी. सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर पंडित नेहरू ने लॉर्ड माउंटबेटन से 'सेंगोल' ग्रहण किया था. भले ही यह एक खुशी का मौका था, लेकिन उस समय लॉर्ड माउंटबेटन का चेहरा भी चिंतित था, क्योंकि उन्हें पता था कि एक तरफ जहां भारत अपनी आजादी का जश्न मना रहा है, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान में और पंजाब व बंगाल जैसे राज्यों में बंटवारे की आग लगी हुई थी. हालांकि, पाकिस्तान अपना स्वतंत्रता दिवस 14 अगस्त को ही मना चुका था.
14-15 अगस्त, 1947 की रात एक विरोधाभास से भरी थी. दिल्ली और देश के कई हिस्सों में लोग आजादी का जश्न मना रहे थे, पटाखे जला रहे थे और तिरंगा फहरा रहे थे. लेकिन इसी समय, पंजाब और बंगाल में भयानक हिंसा हो रही थी. लाखों लोग अपने घर छोड़कर भाग रहे थे.
महात्मा गांधी भी इस जश्न में शामिल नहीं हुए थे, क्योंकि वे देश के दूसरे हिस्से में अनशन पर बैठे थे, विभाजन के दर्द को महसूस कर रहे थे. यह रात हिंदुस्तान को याद दिलाती है कि आजादी की कीमत बहुत भारी थी, और यह सिर्फ एक राजनीतिक जीत नहीं थी, बल्कि करोड़ों लोगों के बलिदान और दर्द से भरी हुई थी.