सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ऐसे एल्गोरिदम का उपयोग करते हैं जो यूजर्स के व्यवहार, पसंद और गतिविधियों को ट्रैक करके उन्हें उसी तरह की सामग्री लगातार दिखाते हैं. जब यह एल्गोरिदम बच्चों पर लागू होते हैं, तो वे न केवल उनका ध्यान बांधते हैं, बल्कि उन्हें ऐसी सामग्री की ओर खींचते हैं जो उनकी उम्र के लिए अनुचित या मानसिक रूप से हानिकारक हो सकती है — जैसे कि डिप्रेशन, बॉडी इमेज , हिंसा या सेक्सुअलाइज़्ड कंटेंट से जुड़ी चीज़ें. मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होगा , बच्चे लगातार तुलना, ट्रोलिंग और "लाइक कल्चर" के दबाव से मुक्त होंगे. स्क्रीन टाइम में कमी आएगी , ऑनलाइन समय सीमित होगा, जिससे फिज़िकल एक्टिविटी और नींद में सुधार हो सकता है. डेटा की सुरक्षा होगी , बच्चों का निजी डेटा कंपनियों के हाथों में जाने से बचेगा. ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने इस खतरे को पहचाना और ठोस कदम उठाए. लेकिन भारत जैसे देश में जहाँ बच्चों की संख्या और डिजिटल पहुंच दोनों कहीं अधिक हैं, क्या अब भी इंतज़ार कर सकते हैं?