लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में,
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है
ये अश'आर मशहूर और मुमताज़ शायर राहत इन्दौरी साहब के हैं.. राहत इन्दौरी साहब को लोग उनके इन आइकोनिक शेर से जानते हैं. मुल्क में इन अश'आर के वजह से उन्हें वाह-वाही भी मिली और गालियाँ भी मिली!
राहत साहब हमेशा मुल्क में जम्हूरी निजाम, रवादारी, अमन और इन्साफ की वकालत करते रहे. अवाम से लेकर हुक्मरान तक को आईना दिखाते रहे. इस वजह से वो हमेशा सत्ता पक्ष और सरकार के समर्थकों के निशाने पर रहे. लेकिन उन्होंने कभी हुकूमत के डर से अपना स्टैंड नहीं बदला. हुकूमत से आँख से आँख मिलाकर बात करते रहे. अपनी शायरी से हुक्मरानों को कभी बेदार किया तो कभी सीधे-सीधे उन्हें ललकार दिया.
अपने हाकिम की फकीरी पे तरस आता है
जो गरीबों से पसीने की कमाई मांगे
राहत साहब के ऐसे शेर हुक्मारों को बेचैन कर देते थे.. उनके समर्थक अपना आप खो बैठते थे!
जब वो लिखते थे,
'जुबां तो खोल, नजर तो मिला, जवाब तो दे
मैं कितनी बार लुटा हूँ, हिसाब तो दे'
तो फिर हुकूमत के पास न कोई जवाब होता, न हिसाब होता, न मुंह में कोई जुबां होती. उनकी नज़रें भी शर्म से झुक जाती.
राहत इंदौरी साहब की शायरी जिंदगी की सच्चाई, समाज का दर्द और इंसानी जज्बातों का ऐसा संगम है, जो हर दिल को अन्दर तक छू लेता है. झकझोड़ देता है.
अपने बेबाक अंदाज और क्रांतिकारी अल्फाजों से उन्होंने न सिर्फ शायरी की महफिलों को रौशन किया, बल्कि हिंदी फिल्मों के गीतों के जरिए भी लाखों दिलों के हरदिल अज़ीज़ गीतकार बन गए. उनके शब्द सीधे- सीधे दिल और दिमाग में उतर जाते हैं. वो ज्यादा फलसफी बातें नहीं करते हैं, जो भी कहते हैं आम फहम जुबान में सीधा और सपाट कहते हैं.
1 जनवरी 1950 को मध्य प्रदेश के इंदौर में पैदा हुए इस क्रांतिकारी शायर राहत इंदौरी का पूरा नाम राहत कुरैशी था. राहत इंदौरी का बचपन बेहद आर्थिक तंगदस्ती में गुज़रा था. उनकी ज़िन्दगी मुश्किलों से भरी हुई थी. खानदान के खराब इक़्तिसादी हालात की वजह से उन्होंने कभी अपना बचपना नहीं देखा. महज 10 साल की उम्र में उन्होंने साइन बोर्ड की पेंटिंग का काम शुरू किया था. वो दिन में स्कूल जाते थे और रात में पेंटिंग का काम करते थे.
राहत इंदौरी की शुरुआती पढ़ाई इंदौर के नूतन स्कूल में हुई थी. 1973 में उन्होंने इंदौर के इस्लामिया करीमिया कॉलेज से ग्रेजुएशन किया था. इसके बाद 1975 में भोपाल के बरकतउल्लाह यूनिवर्सिटी से उर्दू अदब में पोस्ट ग्रेजुएशन किया था. 1985 में उन्होंने मध्य प्रदेश के ही भोज यूनिवर्सिटी से उर्दू साहित्य में पीएचडी की थी. उनकी पीएचडी का काम इतना अच्छा था कि इसके लिए उन्हें इनाम से नवाज़ा गया था.
राहत इंदौरी साहब पढाई पूरी करने के बाद इंदौर के एक कॉलेज में उर्दू जुबान और अदब के प्रोफेसर बन गए थे, मगर उनको असली पहचान उनकी बेबाक शायरी ने दिलाई.
कॉलेज में अध्यापन के साथ- साथ मुशायरों की महफिलों अपने अपने अंदाज बयान से जल्द ही वह उर्दू शायरी के दिग्गजों में शुमार हो गए थे. उनकी शायरी में इश्क़ , बगावत और सामाजिक मुद्दों की गहरी छाप होती है, जो हर दिल को छू लेती है.
बुलाती है मगर जाने का नहीं
ये दुनिया है इधर जाने का नहीं
मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर
मगर हद से गुज़र जाने का नहीं
उनके अश'आर आज भी लोगों की जुबान पर जिंदा हैं, जिसमें वो इश्क़ की हद भी तय कर देते हैं.. आशिकों को होशियार भी करते हैं!
राहत इंदौरी साहब ने उर्दू शायरी के साथ-साथ हिंदी सिनेमा में अपनी गीतों की वजह से भी बेहद मकबूल हुए. 'मुन्ना भाई एमबीबीएस', 'इश्क', 'खुद्दार', घातक, 'मर्डर' 'करीब' 'बेगम जान' और 'मिशन कश्मीर' जैसी फिल्मों के लिए लिखे गए उनके गीत ने उन्हें रातों- रात शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया.
1998 में विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म 'करीब' में जब राहत इंदौरी साहब ने गीत लिखा, 'चोरी- चोरी जब नज़रे मिले, चोरी-चोरी दिल ने कहा, चोरी में ही है मज़ा' और इसे नेहा (मनोज वाजपेयी की बीवी) और बॉबी देओल पर फिल्माया गया तो प्रेम में पड़े हर युवा को लगा कि राहत इंदौरी साहब ने ये गाना उनके लिए ही लिखा है..
इसके पहले ही राहत साहब 1997 में 'इश्क' फिल्म के लिए गीत लिख चुके थे.. नींद चुराई किसने, तूने ओ सनम'.
अनुराग बसु की 'मर्डर' (2004) का वो गाना भला कौन भूल सकता है.. 'दिल को हज़ार बार रोका-रोका.. दिल को हज़ार बार टोका.. धोखा न खाना..'
अलीशा चिनॉय के गाये हुए गानों में ये एक यादगार आइकोनिक गाना बन गया.. इस फिल्म से भले ही फिल्म के नायक अस्मित पटेल की किस्मत न चमकी हो..लेकिन प्रेम में टूटे आशिकों के दिल पर इस गाने ने दशकों तक मरहम लगाने का काम किया है! '
'कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे, तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे' के बाद ब्रेक के बाद सुना जाने वाला आज भी ये गाना दूसरे पायदान पर बना हुआ है! इस गाने में भी प्यार में धोखा खाए आशिकों की कैफियत और पछतावे के भाव की राहत इंदौरी साहब ने बेहद खूबसूरत तर्जुमानी की है..
1994 में आई इकबाल दुर्रानी की फिल्म 'खुद्दार' एक एक्शन-थ्रिलर मूवी थी, लेकिन इस फिल में गोविंदा के एक्शन से ज्यादा लोगों को गोविन्दा और करिश्मा कपूर पर फिल्माए गए गीत, 'तुमसा कोई प्यारा कोई मासूम नहीं है, तुम जान हो मेरी तुम्हें मालूम नहीं है' पसंद आया.. इस गीत को भी राहत इन्दौरी साहब ने लिखा था और अन्नू मलिक ने इसे अपने धुनों से सजाया था..
अपने प्रेमियों से सुने गए ये जादुई अलफ़ाज़ आज भी प्रेमिकाओं के शरीर में डोपामाइन बढ़ा कर उन्हें प्यारा और मासूम होने/ दिखने के अहसास से भर देता है! इस मामले में राहत इन्दौरी साहब एक मनोवैज्ञानिक भी थी, जो महिलाओं के मनोविज्ञान को बखूबी समझते थे!
राहत साहब सिर्फ इश्क और हुस्न पर नहीं लिखते थे.. उनके गीतों में भी विविधता थी.. 1996 में राज कुमार संतोषी के निर्देशन में बनी फिल्म 'घातक' के गीत 'कोई आये तो ले जाए, मैं पिया की गली भूल आयी रे' गीत भी राहत इन्दौरी ने लिखे थे, जिस गीत ने ममता कुलकर्णी को आइटम डांस की नई सनसनी बना दिया था.. और काशी (सन्नी देओल) के हाथों पहली बार कात्या (डैनी) के गुंडों को पीटने के बाद बस्ती वालों को इस गीत से जश्न में डूबने का मौका मिला था!
राहत इंदौरी साहब सिर्फ एक शायर, अदीब, प्रोफेसर या गीतकार नहीं, बल्कि समाज की नब्ज को टटोल कर उसे लफ़्ज़ों में पिरोकर शायरी और गीतों के ज़रिए अवाम के दिलों में उतार देने वाले एक जादूगर थे. उनकी शायरी में सामाजी और सियासी तनकीद, बगावती तेवर, और आम आदमी का दर्द साफ झलकता था. इश्क को भी वो नए तरीके से परिभाषित करते थे..
राहत इंदौरी को पद्म श्री (2002), साहित्य अकादमी पुरस्कार (2020), और फिल्मफेयर पुरस्कार फॉर बेस्ट लिरिसिस्ट (1998) जैसे कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया. इसके अलावा, उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई सम्मान मिले हैं.
वो एक सच्चे देशभक्त थे..
उन्होंने लिखा,
'मैं मर जाऊं तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना,
लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना'
फिर एक दिन ऐसा आया जब 11 अगस्त 2020 को कोविड-19 के की वजह से उनकी मौत हो गयी और इंदौर में उन्हें गुमनामी के साथ दफना दिया गया!
शायरों, अदीबों, गीतकारों की मौत पर लोग दुःख जताते हैं. खिराजे अकीदत पेश करते हैं. श्रद्धांजलि देते हैं..
लेकिन राहत इन्दौरी साहब को खिराजे अकीदत कम और लानत- मलामत ज्यादा मिले. गालियां मिली..
तत्कालीन सरकार के समर्थक और दक्षिणपंथी समूह के लोगों ने राहत इंदोरी की मौत पर शोक और संवेदना जताने और दिखाने के बजाये उहें गालिया दी और जश्न मनाया. ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि राहत इन्दौरी कभी हुमूमत के चाटुकार या दरबारी शायर नहीं बन सके..
लेकिन जब कभी सत्ता की ज्यादतियों, अवाम के हक़ और इन्साफ और जम्हूरियत की बात होगी राहत इन्दौरी साहब हमेशा याद किये जाएंगे..
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