Uttar Pradesh News Today: देश में बीते 7 जून को पूरे जोशखरोश के साथ ईद-उल-अजहा (बकरीद) का त्यौहार मनाया गया. इस दौरान बड़ी संख्या में मुस्लिमों ने मस्जिद और ईदगाहों का रुख किया और ईद-उल-अजहा की नमाज पढ़ी और फिर लौटकर पैगंबर हजरत इब्राहिम (अ.स.) की सुन्नत पर अम्ल करते हुए जानवारों की कुर्बानी की. इस्लाम में कुर्बानी का सिलसिला तीन दिनों तक चलता है, जो सोमवार (9 जून) को खत्म हो गया.
बकरीद के असली मकसद को पूरा करते हुए जहां एक तरफ लोगों ने इसके फर्ज को अंजाम दिया, तो वहीं गरीब, मिस्कीन और जरुरतमंदों को पेटभकर लजीज खाना खाने को मिला. भारत में हर साल बकरीद पर 50 लाख से 1 करोड़ बकरा, भैंसा, ऊंट और दुंबे जैसे हलाल जानवरों की कुर्बानी दी जाती है. हालांकि, इस साल जानवरों के खाल (चमड़ी) की कीमतों में भारी गिरवाट की वजह से मस्जिद, मदरसा इंतजामिया और सामाजिक संगठनों में को काफी निराशा हुई है.
इसकी वजह यह है कि कुर्बानी के जानवरों की खाल मस्जिद, मदरसों और सामाजिक संगठनों को दान कर दिया जाता है, जिसे ये फरोख्त कर गरीब, मिस्कीन और जरुरतमंदों की मदद करते हैं. इस बार बकरे की खाल सिर्फ 20 से 22 रुपये में बिका, जबकि भैंसों की खालों के खरीदार ही नहीं मिले, इसकी वजह से उनकी खालों को जमीन में दफन करना पड़ा. कुर्बानी के चमड़े मस्जिद, मदरसों की इनकम का एक महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं.
बकरीद से पहले मस्जिद और मदरसा इंतजामिया कुर्बानी के जानवर की खाल इकट्ठा करने के लिए टीम बनाते हैं. इसके अलावा अपने दूसरे माध्यमों से खालों के दान देने की अपील की जाती है. हाल के वर्षों में खाल की कीमतों में जबरदस्त गिरावट आई है. पहले भैंस और पड़वे की खाल 1500 रुपये तक में बिक जाती थी, लेकिन अब उनके खरीदार नहीं मिल रहे हैं. वहीं, बकरे की खाल की कीमत 250 रुपये से घटकर महज 22 रुपये रह गई है.
इंकलाब में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, ईद-उल-अजहा के मौके पर होने वाली पशुओं की कुर्बानी की खालों से एक सामान्य मदरसा का कम से कम तीन महीने के खर्च का इंतजाम हो जाता था. हालांकि, अब खाल की कीमतों में भारी गिरावट की वजह से मदरसों को इनकम पर काफी असर पड़ा है. इसकी वजह से उनका सालाना बजट भी चरमरा गया है और खाल को जमा करने वाले कर्मचारियों का खर्च निकालना मुश्किल हो रहा है.
गोरखपुर स्थित एक मदरसे प्रिंसिपल ने बताया कि पहले कुर्बानी के चमड़े से अच्छी इनकम हो जाती है, लेकिन अब एक टीचर की एक माह की सैलरी के बराबर भी पैसे नहीं मिलते हैं. उन्होंने बताया कि हालिया कुछ सालों में खाल की कीमतों बेतहाशा गिरावट आई है और बड़े जानवरों के खालों के खरीदार नहीं मिल रहे हैं, जिससे उनके संस्थान को आर्थिक तौर पर झटका लगा है.