नई दिल्ली: आज का दिन और तारीख भारतीय इतिहास के लिहाज से काफी ख़ास है. आज ही के दिन 16 जुलाई 1856 को भारत में विधवाओं को दुबारा शादी करने की इज़ाज़त मिली थी. ब्रिटिश हुकूमत ने हिंदू विधवा पुनर्विवाह कानून को 16 जुलाई 1856 को पास किया था. इस कानून ने भारतीय समाज में प्रचलित रूढ़िवादिता को चुनौती देकर सामाजिक सुधार और महिला शाश्क्तिकरण की दिशा में ऐतिहासिक कदम उठाया था. यह कानून न सिर्फ विधवा महिलाओं के लिए एक नई शुरुआत का प्रतीक था, बल्कि यह लैंगिक समानता और मानवाधिकारों की दिशा में भी उठाया गया एक ख़ास कदम था.
इस कानून को लागू करवाने में राजा राम मोहन रॉय का ख़ास योगदान माना जाता है. ऐतिहासिक तथ्यों से इस बात की तस्दीक होती है कि राज राम मोहन रॉय को विधवा विवाह का आईडिया इस्लाम से मिला था. जब वो पटना के शमशुल होदा मदरसा में पढ़ते थे, तभी वो इस्लाम में विधवा विवाह के नियम से ख़ासा मुतासिर थे. बाद में उन्होंने समाज सुधारक पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर के साथ मिलकर सती प्रथा और विधवाओं के लिए दुबारा शादी के लिए बड़े पैमाने पर सामाजिक आन्दोलन चलाया और तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत को इसपर कानून बनाने के लिए प्रेरित किया.
इस कानून के बाद मुल्क में हिन्दू विधवाओं को दोबारा शादी करने का कानूनी अधिकार दिया गया था. हिन्दू महिलाओं के पुनर्विवाह को वैध माना गया, और उनके बच्चों को भी वैधानिक रूप से मान्यता मिली. इससे पहले 19वीं सदी में भारतीय समाज में हिंदू विधवाओं की हालत बेहद खराब थी. विधवाओं को सामाजिक और धार्मिक रूढ़िवादिता की वजह से कई तरह के मुश्किल नियमों का सामना करना पड़ता था. उन्हें दोबारा शादी की इज़ाज़त नहीं थी और उनकी जिंदगी अक्सर सामाजिक बहिष्कार, आर्थिक तंगी और मानसिक यातना से भरी होती थी. अगर किसी हिन्दू लड़की की बचपन में शादी हो जाती थी, तो भी उसके पति की मौत होने पर उसे ताउम्र तनहा ज़िन्दगी गुजारनी होती थी.
इससे पहले उन्हें सती प्रथा का भी सामना करना पड़ता था, जिसके तहत किसी औरत के शौहर की मौत हो जाने पर उसे अपने पति की जलती हुई चिता पर लेटकर जिन्दा जल जाना पड़ता था. इसे सती होना कहा जाता था, और जो औरतें ऐसा नहीं करती थी, उन्हें जबरन पकड़कर उनके पति की जलती हुई चिता पर लिटा दिया जाता था. हालांकि सती प्रथा साल 1829 में राजा राममोहन राय की कोशिशों से बैन हो चुकी थी.
क्या राजा राम मोहन रॉय को मदरसे में मिली थी विधवा विवाह की प्रेरणा
भारत में इस ऐतिहासिक सामाजिक बदलाव के पीछे सबसे बड़ा हाथ पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर और राजा राम मोहन रॉय का माना जाता है. विद्यासागर ने वेदों और शास्त्रों का गहन अध्ययन किया और तर्क दिया कि हिंदू धर्मग्रंथ भी विधवाओं के पुनर्विवाह के खिलाफ नहीं हैं. वहीँ, राजा राम मोहन रॉय ने यूरोप और अरब मुल्कों में विधवा विवाह का हवाला देकर भारत में भी इसे लागू करने के लिए आन्दोलन चलाया था. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि रॉय को इसकी प्रेरणा बचपन में मदरसे में अध्ययन के दौरान मिली थी.सेज प्रकाशन से छपी 'मदरसा इन थे ऐज ऑफ़ इस्लामोफोबिया' किताब में लेखक जिया उस सलाम और असलम परवेज ने लिखा है कि राज राम बचपन में बंगाल के मदरसा आलिया में पढ़े थे. बाद में वे पटना के फुलवारी शरीफ स्थित मदरसा मुजीबिदा में तालीम हासिल की थी. वहां उन्होंने फ़ारसी सीखी और अरबी में इतनी महारत हासिल की कि वे बिना किसी मौलवी की मदद के कुरान पढ़ सकते थे.
राम मोहन राय ने कुरान के साथ सूफी दर्शन का अध्ययन किया था. उन्होंने मध्यकालीन सूफियों की रचनाओं और अरस्तू व प्लेटो के अरबी अनुवादों का भी अध्ययन किया. तर्क और एकेश्वरवाद पर ज़ोर देने वाले सूफी विचार, राय के अपने विचारों से मेल खाते थे और धर्म के प्रति उनके तर्कवादी दृष्टिकोण को प्रभावित करते थे. इस्लामी परंपराओं का ही प्रभाव था, जो उन्होंने 1828 में, ब्रह्म समाज की स्थापना की थी. ये एक सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन था जिसने मूर्ति पूजा का खंडन किया और तर्कवाद एवं मानवतावाद पर ज़ोर दिया. ब्रह्म समाज की कुछ प्रथाओं, जैसे मूर्ति पूजा का विरोध और सामूहिक प्रार्थना, इस्लामी और ईसाई रीति-रिवाजों से काफी मेल खाती है. माना जाता है कि इस्लाम से से उन्हें सती प्रथा और विधवा पुनर्विवाह की प्रेरणा मिली थी. हालांकि, इसके बावजूद उन्हें भारत में बाल विवाह का विरोध किया था.
इस्लाम में क्या है विधवा पुनर्विवाह के नियम ?
भारत में विधवा पुनर्विवाह कानून बनने के पहले इस्लाम में लगभग 1300 साल पहले से यह नियम लागू है. इस्लाम में अगर किसी महिला के पति की मौत हो जाए या उससे तलाक हो जाए तो वो चार माह १० दिन इद्दत की अवधि गुज़ारने के बाद किसी भी पुरुष से शादी करने के लिए आज़ाद होती हैं. इद्दत की अवधि इसलिए रखी गयी है ताकि अगर महिला गर्भ से हो तो इसकी पहचान हो सके और होने वाले बच्चे की जिम्मेदारी उसके मूल पिता या उसके परिवार पर डाली जा सके. इस्लाम में महिलाओं की मर्ज़ी और पसंद का ख्याल किया गया है, विधवा महिला को दुबारा विवाह करने के लिए बाध्य भी नहीं किया जा सकता है. पैगंबर मुहम्मद (स.) ने खुद कई विधवाओं से विवाह किया, ताकि लोगों को प्रेरित किया जा सके. इस्लाम में परिस्थितिजन्य चार शादियों का प्रावधान भी इसलिए रखा गया है ताकि समाज में तलाक शुदा या विधवा महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक स्थिति को फिर से बहाल किया जा सके और समाज में किसी तरह के व्यभिचार या महिलाओं के शोषण को रोका जा सके.
यहाँ तक कि इस्लाम में विधवाओं के पुनर्विवाह पर बहुत ज़ोर दिया गया है. हदीस भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि जो लोग अनाथ बच्चों का पालन-पोषण करते हैं, वे अल्लाह तआला को बहुत प्रिय हैं. उस इंसान पर ईश्वर की ख़ास रहमत होती है जो किसी विधवा से विवाह करता है, और उसके दिवंगत पति से हुए बच्चों का पालन-पोषण करता है. विधवा से विवाह: "विधवाओं और गरीबों को भरण-पोषण देने वाला अल्लाह (SWT) की राह में दान देने वाले के समान है, जो रात भर नमाज़ पढ़ता है और दिन में रोज़ा रखता है." (बुखारी)
राजा राम मोहन रॉय किस मदरसे में पढ़े थे ?
Ans. राजा राम मोहन रॉय ने कोलकाता के मदरसा आलिया में और पटना के फुलवारी शरीफ स्थित मदरसा मुजीबिदा में पढ़ाई की थी.
राजा राम मोहन रॉय ने फ़ारसी का कौन सा अखबार निकाला था ?
Ans. राजा राम मोहन रॉय ने फ़ारसी भाषा में मिरात-उल-अखबार का प्रकाशन किया था.
क्या राजा राम मोहन रॉय इस्लाम से प्रभावित थे?
Ans.राजा राम मोहन रॉय इस्लाम के एकेश्वरवाद के सिद्धांत, मूर्ती पूजा का विरोध, समानता और सामाजिक सुधार से प्रभावित थे.