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Opinion: कानून का पालन करने पर कोर्ट में पिटाई; डियर वकील साहेब लोग, शेम ऑन यू !

Muslim man beaten in MP Rewa court for alleged Love Jihad: मध्य प्रदेश के रीवा कोर्ट में अपनी हिन्दू दोस्त के साथ शुक्रवार को कोर्ट मैरिज करने आये एक मुस्लिम नौजवान की वकीलों और दक्षिण पंथी संगठन के लोगों ने पिटाई कर दी. इससे पहले भी भोपाल में अंतर्धार्मिक विवाह करने आये एक मुस्लिम नौजवान की कोर्ट परिसर में वकीलों ने पिटाई की थी, जबकि अगर लड़की मुस्लिम और लड़का हिन्दू हो तो कोर्ट, वकील और पुलिस सभी इसमें सहयोग करते हैं.. ये संविधान और कानून की समानता के सिद्धांतों  का खुलेआम उलंघन है.   

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Opinion: कानून का पालन करने पर कोर्ट में पिटाई; डियर वकील साहेब लोग, शेम ऑन यू !
Dr. Hussain Tabish|Updated: Feb 22, 2025, 07:38 PM IST
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Opinion:

केस 1- 
बरेली के प्रेमनगर के निवासी सुहैन रज़ा की 20 वर्षीय बेटी दानिया ने अपना धर्म छोड़कर हिन्दू प्रेमी से शादी कर ली है. शादी के बाद उसने अपना विडियो जारी कर अपने पिता से रिक्वेस्ट की है कि उसके प्रेमी के खिलाफ पुलिस केस वापस ले लें. ऐसी ख़बरें हमारे पास अक्सर आती रहती हैं, जिसमें मुस्लिम लड़की हिन्दू प्रेमी से शादी कर लेती हैं. ऐसी शादियों का हिन्दू समाज, पुलिस-प्रशासन, वकील-कोर्ट सब मिलकर स्वागत करते हैं, क्यूंकि इसे स्वेच्छिक शादी और धर्म परिवर्तन बताया जाता है.  यहाँ, दनिया का विडियो नीचे देख सकते हैं.

केस 2- 
कल मध्य प्रदेश के रीवा में एक मुस्लिम युवक और एक हिन्दू लड़की नकाब लगाकर कोर्ट में शादी करने पहुंचे थे. जब वो अपने वकील से शादी के प्रोसेस को लेकर डिस्कस कर रहे थे तभी उसी या किसी अन्य वकील ने कुछ हिन्दू वादी संगठनों के लोगों को फ़ोन कर बुला लिया और कोर्ट परिसर में ही उन दोनों को दौड़ा- दौड़ा कर पीटा गया.. छह माह की गर्भवती लड़की पर भी किसी ने दया नहीं दिखाई.. 
 

केस- 3
7 फरवरी को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में मुस्लिम युवक सैयद अपनी दोस्त वैष्णवी के साथ भोपाल कोर्ट में शादी करने आया था. दोनों नरसिंहपुर के पिपरिया के रहने वाले थे. जब वो वकील से शादी के लिए बात कर रहे थे तभी वकील साहब ने हिन्दू वादी संगठनों के लोगों को बुला लिया और कोर्ट परिसर में ही सैयद की पिटाई कर दी गई..

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जब मैं ये सब लिख रहा हूँ, इसका रत्ती भर भी ये मतलब नहीं है कि मैं किसी मुस्लिम लड़के के पीटे जाने या किसी मुस्लिम लड़की के हिन्दू से शादी करने से व्यथित हूँ. मैं इस बात का कट्टर समर्थक हूँ कि विवाह सभी को अपनी पसंद के युवक और युवती या महिला से ही करनी चाहिए... वरना नापसंद और थोपी गयी शादियों को सात जन्मों का बंधन और सातवें आसमान में जोड़ियाँ बनने का हवाला सदियों से दिया जाता रहा है, और आगे भी दिया जाता रहेगा, भले ही जोड़ियाँ ज़मीन पर और पहले जन्म में ही घुट-घुटकर जीती रहें!

ऐसा भी नहीं है कि हिन्दू-मुस्लिम अंतर्धार्मिक शादियों में हाल के दिनों में कोई गुणात्मक वृद्धि हुई हो.  ये सब शुरू से होता रहा है और आगे भी होता रहेगा.. मैं जिन अंतर्धार्मिक जोड़ों को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ, उनमें हिन्दू vs मुस्लिम और मुस्लिम vs हिन्दू दोनों की संख्या लगभग बराबर है. परिवार- समाज से टक्कर लेने के बाद वो सभी अपनी दुनिया में खुश हैं.  

अब्दुल को अगर प्रिया अच्छी लगेगी और सलमा को प्रेम प्रकाश अच्छा लगेगा तो प्रेम भी उसी से होगा...आगे जीवन जीना भी उसी के साथ चाहेगा/ चाहेगी... 
अगर हममें से किसी को ये सब ठीक नहीं लग रहा है, तो इसका सीधा मतलब है कि हम निम्न मध्यम वर्गीय, मध्यम वर्गीय या उस दरिद्र समाज का हिस्सा हैं, जिसके पास अपने-अपने धर्मों और संस्कृति की हिफाज़त का अघोषित ठेका है! वरना, बड़े लोगों में एक ब्राहमण अपनी 24 साल की बेटी को एक करोड़पती 50 साल के नवाब से खुद बयाह देता है... और एक खानदानी रईस, रसूखदार और कथित कट्टर मुसलमान फारुख अब्दुल्लाह अपनी बेटी का हाथ एक दूर राज्य के बड़े हिन्दू नेता के बेटे के हाथ में सौंप देता है..   

हालांकि, मेरी उन तमाम लोअर इनकम ग्रुप और मिडिल क्लास मुस्लिम नौजवानों और हिन्दू लड़कियों को सलाह है कि अभी जो देश के हालात हैं, उसमें तुम आपस में शादी न करो तो दोनों के हक़ में ज्यादा अच्छा होगा.. और करो तो फिर पूरी ताक़त के साथ करो, जिससे कि तुम इस देश के पुलिस- प्रशासन, न्यायिक व्यवस्था और नागरिक समाज के दोहरे मापदंडों को पूरी तरह नंगा कर सको.. केरल के सुफियान और हदिया की तरह सुप्रीम कोर्ट तक जा सको.  अगर ऐसा नहीं कर सकोगे तो ऐसे ही पिटाते रहोगे... क्यूंकि उनका प्रेम 'प्रेम' है लेकिन तुम्हारा प्रेम 'लव जिहाद' है.  

सालों की गुलामी और जलालत झेलने के बाद देश का कानून और संविधान इतना परिपक्व ज़रूर हुआ था कि उसने एक बालिग़ स्त्री और पुरुष को अपने पसंद का जीवन साथी और अपने पसंद का धर्म और आस्था चुनने और उसपर चलने की आज़ादी दी थी.. जंगल राज, किसी राजा का फरमान, और ताकतवर या संख्या बल के इन्साफ की जगह एक लिखित और रैशनल संविधान और कानून बनाया था, जिसमें इस बात की गारंटी दी गई है कि बिना किसी कानूनी प्रोसेस या ट्रायल के किसी आरोपी को अपराधी नहीं घोषित किया जाएगा और उसका जीवन या संविधान में मिली आज़ादी को न कम किया जाएगा और न ही छीना जाएगा. 

संविधान ने इसके लिए स्वतन्त्र न्यापालिका की व्यवस्था की थी... जो किसी व्यक्ति, समाज और सरकार के जुल्म के शिकार देश के नागरिकों के लिए इन्साफ की आखिरी उम्मीद होती थी..लेकिन ये उम्मीद अब कमजोर पड़ रही है. भरोसा डगमगा रहा है.. अदालतों में बैठने वाले इन्साफ के कुछ देवताओं और मजलूमों के लिए पैरवी करने करने वाले वकीलों के एक वर्ग के  बयानों और हरकतों को देखकर इसे बखूबी समझा, देखा और महसूस किया जा सकता है. 

इसे सिर्फ मुस्लिम नौजवानों की अदालतों में हो रही पिटाई से न देखकर उस सन्दर्भ से भी समझा जाना चाहिए जब दिल्ली की अदालतों में सरकार और बहुसंख्यक के विचारों से अलग विचार रखने वाले छात्र नेता कन्हैया कुमार और उमर खालिद की अदालत परिसर में वकीलों के जरिये पिटाई की गई.. इस मामले में कन्हैया कुमार पर अबतक देशद्रोह का कोई आरोप साबित नहीं हुआ है, उमर खालिद पर भी नहीं हुआ है.

 देश में आतंकवाद में फंसे आरोपियों के मामले में दोषसिद्दी का प्रतिशत १० फीसदी से भी कम है... वैसे ही देशद्रोह के मामलों में दोष सिद्धि का प्रतिशत मात्र सिर्फ ४ प्रतिशत है.. इसके बावजूद ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जब कुछ वकीलों ने आरोपियों का केस लड़ने से ही मना कर दिया.. यानी उन वकीलों ने ट्रायल के पहले ही सभी को अपराधी मान लिया ? मानों वकील कोई अंतर्यामी सिद्धि पुरुष हों ? सबकुछ जानते हों?  

क्या कल को किसी साथी वकील पर ही या उसके बाप- बेटा, भाई- बहन, बीवी पर हत्या, लूट, अपहरण, बलात्कार, आतंकवाद, नक्सलवाद और देशद्रोह का झूठा आरोप लग जाएगा, तो बाकी वकील उसे भरी अदालत में या अदालत परिसर में बिना दोषसिद्धि के पीट देंगे? उसकी जान ले लेंगे? उसे अपराधी करार दे देंगे? उसका चरित्र हनन कर देंगे ? 

कानून हर मुल्जिम को सज़ा पाने तक अपना पक्ष रखने का मौका देता है. यहाँ तक कि सजा पाए मुजरिम को भी कानून हायर अदालतों में अपील करने का अधिकार देता है.. ऐसे में वकील का धर्म है कि वो हर मुलजिम के दोषसिद्धि तक उसका बचाव करे.

पहले पुलिस के स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता पर अदालतें रोक लगाती थी.. वकील पुलिस के मनमानी और डंडा मारकर लिए गये मुलजिम के इकबालिया बयानों को कोर्ट में अपने सवालों और दलीलों से धराशाई कर देते थे.. लेकिन अब वकील का एक बड़ा तबका पूर्वाग्रह के रोग से ग्रस्त है. वो एक पोलिटिकल एक्टिविस्ट की तरह व्यवहार कर रहे हैं.. दूसरे विचारों और पक्षों को अपराधी मान रहे हैं. क्या ये वकालत जैसे एक नोबल प्रोफेशन के साथ धोखा नहीं है?  क्या ये संविधान और कानून के समानता के सिद्धांतों का खुलेआम उलंघन नहीं है? 

:- हुसैन ताबिश

लेखक पत्रकार हैं और ज़ी न्यूज़ से जुड़े हैं. यहाँ व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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