जब भी पारंपरिक कढ़ाई की बात होती है, तो 'लखनवी कढ़ाई' और 'चिकनकारी' जैसे नाम सबसे पहले जेहन में आते हैं.क्या आप दोनों के बीच फर्क जानते हैं. नहीं तो आइए जानते हैं.
चिकनकारी की शुरुआत मुगल काल में नूरजहां द्वारा हुई मानी जाती है, जबकि लखनवी कढ़ाई में मुगल, अवध और नवाबी प्रभाव के साथ कई शैलियों का सम्मिलन होता है.
चिकनकारी खासतौर पर लखनऊ की पहचान बन चुकी है, इसलिए इसे 'लखनवी चिकनकारी' भी कहा जाता है. वहीं, लखनवी कढ़ाई में पूरे लखनऊ की पारंपरिक कढ़ाई शैली शामिल होती है.
चिकनकारी में अधिकतर फूल-पत्तियों और जालीदार डिजाइनों की महीन कढ़ाई होती है, जबकि लखनवी कढ़ाई में जरदोज़ी, गोटा, मुकैश जैसी भारी और चमकीली शैलियां शामिल होती हैं.
चिकनकारी में आमतौर पर सफेद सूती धागों का प्रयोग होता है, जबकि लखनवी कढ़ाई में रंगीन धागों, धातु के तारों और चमकीले धागों का उपयोग किया जाता है.
चिकनकारी मुख्यतः हल्के कपड़ों जैसे कॉटन, जॉर्जेट, शिफॉन आदि पर की जाती है. लखनवी कढ़ाई भारी कपड़ों जैसे सिल्क, वेलवेट, और साटन पर अधिक देखी जाती है.
चिकनकारी को रोजमर्रा की पोशाकों, कुर्तियों में ज्यादा देखा जाता है, जबकि लखनवी कढ़ाई को शादियों, त्योहारों और पारंपरिक अवसरों पर पहने जाने वाले भारी लिबासों में.
चिकनकारी का फोकस नाजुक और महीन काम पर होता है, जबकि लखनवी कढ़ाई में डिजाइन अधिक शाही, भव्य और सजावटी होते हैं.
आजकल चिकनकारी भी मशीन से की जाती है लेकिन इसका मूल स्वरूप हाथ की कढ़ाई ही है. लखनवी कढ़ाई में मशीन और हाथ दोनों तकनीकों का उपयोग देखने को मिलता है.
लोग अक्सर चिकनकारी को ही लखनवी कढ़ाई समझ लेते हैं, जबकि हकीकत में लखनवी कढ़ाई एक बड़ा छाता है और चिकनकारी उसका सिर्फ एक भाग है.
लेख में दी गई ये जानकारी सामान्य स्रोतों से इकट्ठा की गई है. इसकी प्रामाणिकता की पुष्टि स्वयं करें. एआई के काल्पनिक चित्रण का जी यूपीयूके हूबहू समान होने का दावा या पुष्टि नहीं करता.